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स्वाधीनता।

इस पुस्तक में, पहले कहीं पर, यह वात सिद्ध की जा चुकी है कि जिन बातों का सम्बन्ध और लोगों से नहीं है उनके विषय में हर आदमी स्वतंत्र है। वह उन बातों को जिस तरह चाहे कर सकता है । इसी नियम के अनु- सार यदि कुछ आदमी मिल कर एक समाज की स्थापना करें, और जिन बातों से उस समाज के मेम्बरों को छोड़ कर और किसीका सम्बन्ध नहीं है उनको यदि वे, एक दूसरे की अनुमति से करना चाहें तो कर सकते हैं। ऐसा करने के लिए वे सर्वथा स्वतंत्र हैं । ऐसे समाज के मेम्बरों की राय में जब तक कोई फेरफार नहीं होता तब तक इस विषय में कोई बाधा नहीं माती-अर्थात् तब तक उनकी स्वतंत्रता बनी रहती है। परन्तु राय एक ऐसी चीज है कि वह हमेशा कायम नहीं रहती; बह बदला करती है । अत. एव जिन बातों से सिर्फ किसी समाज-विशेष ही का सम्बन्ध है उनके विपय में भी समाज के सब आदमियों को परस्पर एक दूसरे से इकरार कर लेना चाहिए । इस तरह का इकरार हो जाने पर उनसे उसे पूरा कराना मुनासिब है। पीछे से चाहे उसे पूरा करने की उनकी इच्छा न हो, तो भी, नियम यही है कि वे उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध भी पूरा करें। उस समय उनकी इच्छा की परवा करना न्यायसङ्गत नहीं। परन्तु जितने देश हैं प्रायः सब की कानूनी किताबों में इस नियम के अपवाद पाये जाते हैं। अर्थात् बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनके विषय में इस नियम से काम नहीं लिया जाता । जिस इकरार-जिस प्रतिज्ञा-से किसी तीसरे आदमी का नुकसान होने का डर होता है सिर्फ उसे ही न पूरा करने की जिम्मेदारी से वे नहीं बरी कर दिये जाते; किन्तु जिस प्रतिज्ञा से परस्पर दो आदमियों में से एक का भी नुक- सान होने का डर होता है उसकी जिम्मेदारी से भी वे कभी कभी बरी कर दिये जाते हैं । उदाहरणार्थ इंगलैंड, और प्रायः दूसरे सभ्य देशों में भी, यदि कोई आदमी गुलाम बनाये जाने के लिए दिकने या बेचे जाने का इकरार करे, तो उसका वह इकरार व्यर्थ होगा। ऐसा इकरार न तो कानून ही के वल पर पूरा किया जा सकेगा और न लोक सम्मति ही के वला पर। अपनी इच्छा के अनुसार लोगों के ऐहिक जीवन की यथेच्छ व्यवस्था करने के हक में इस तरह बाधा डालने का कारण स्पष्ट है। निज की स्वाधीनता से सम्बन्ध रखनेवाले इस चरम सीमा के उदाहरण में •प्रतिवन्ध करने का कारण तो और भी अधिक स्पष्ट है । जिस बात से दूसरा