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दूसरा अध्याय।

विश्वास जरा भी कम नहीं होता। वह समझता है कि जिस बात को सब लोग निर्भ्रान्त कहते हैं; जिसे सब लोग ठीक बतलाते हैं; वह अवश्य ही निर्भ्रान्त होगी; वह अवश्य ही अचूक होगी। जिन लोगों की राय वैसी नहीं है उनकी दुनिया की वह कुछ परवा नहीं करता। अर्थात् अपनी राय को सही और उनकी राय को गलत साबित करने की वह जरूरत ही नहीं समझता। जिसको वह अपनी दुनिया समझता है सिर्फ उसी की राय का यह ख्याल रखता है। उसके मन में यह बात कभी नहीं आती कि किसी एक संसार–किसी एक दुनियाके मतपर विश्वास करना सिर्फ इत्तिफाक की बात है, सिर्फ एक आकस्मिक घटना है। अर्थात् दैवयोग से उस संसार में पैदा होने या रहने ही के कारण वह उसकी सम्मति पर विश्वास करता है। यहां पर संसार से मतलब सिर्फ उस देश या समाज से है जहां आदमी पैदा होता या रहता है। क्योंकि वह अपने ही देश या समाज की राय को जगत् की राय समझता है। इस तरह जगत् को बहुत ही परिमित अर्थ में व्यवहार करने से दुनिया में सैकड़ों जगत् हो सकते हैं। उन्हीसे यहां अभिप्राय है। आदमी इस बात का विचार नहीं करता कि जिन कारणोंसे लन्दन में वह क्रिश्चियन हुवा उन्हीं कारणोंसे पेकिन में यह बुध या कन्फूशियन धर्म का अनुयायी होता। वह कभी इस तरह की शङ्का ही नहीं करता। तथापि व्यक्ति-विशेप जैसे भूल कर सकता है—एक आदमी से जैसे गलती हो सकती है—वैसे ही एक युग, एक पुश्त, या एक पीढ़ीसे भी भूल हो सकती है। या बात स्वयंसिद्ध है; और, आवश्यकता होने पर, जितनी दलीलों से चाहिए उतनी से साबित भी की जा सकती है। हर युग या पुश्त के बहुत से मत ऐसे थे अगली पुश्त के लोगों को भ्रांतिमूलक या झूठे ही नहीं किन्तु असङ्गत, बुद्धिविरूद्ध और अनर्थक मालूम हुए हैं। इस बात का गवाह इतिहास है। और यह भी निर्भ्रान्त है—इसमें भी सन्देह नहीं है—कि पहले जमाने की बहुतसी बातें जैसे इस समय कोई नहीं मानता वैसे ही बहुतसी बातें, जो इस समय सब को मान्य हो रही है, आगे न मानी जायंगी।

सम्भव है कि जो दलीलें यहां पर पेश की गईं—जिस तरह के विचार यहां पर प्रकट किये गये—उनके विरुद्ध लोग कुछ कहें। विरोधियोंं की दलीलें शायद इस तरह की होगीं। अपनी बुद्धि के अनुसार, अपने मनोदेवता पर विश्वास करके, अपनी ही जिम्मेदारी पर जिस तरह अधिकारी पुरुष और बातों

स्वा॰–३