पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२६२

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कितै तिहारो देश कित तिहारी नगरिया ? कितै तिहारो देश ? लख मो तन कछु तो कही, हे मेरे प्राणेश । इतने दिन तें उठि रही, आकुल प्राण-पुकार, क्यो नखुले अव लौ तनिक गहन रहस्य-किंवार ? दशन क्षगता मनुज की अति सौमित, अति दीन, रोकि रहे दृग-पन्थ ये देश, काल प्राचीन । बात अगम पर पार की कैसे जानी जाय? अलख झलक मिमि पेखिए? यावो कौन उपाय? छिन्न भिन्न तुम बिन भये मेरे जीवन-तन्त, झटकि बांह तुम चलि वसे, है मेरे रसवन्त । जो कहि जाते निज पती, चलती निरिया नका, तो क्यो उठते दुख-भरे ये सकल्प अनेक ? पाहुन सम तुम करि गये छिन में महा प्रयान, ता दिन ते जीवन कुटी भमी निपट सुनसान । तुम आये वरदान सम बति के सरस विहान, पै निवास्यो अति सूक्ष्मतम मम संजोग दिनमान । मम बिहान, मम दिवस लघु बने तिमिरमय रैल, भ्रमित प्राण पछी रातत, नैकुन पावत चैन । चक्रवाक को रेन, कबहूँ तो कहि जात है, प, हे मम रस ऐन, लगत निशीथ दुरन्त गम । या गणेश झुटोर, कानपुर १७ अगस्त १९४६ हम विषपाया जनम य