पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/४२८

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थाली मे, गलतफहमियों भरी हुई हैं जीवन की दुख की छाया छिपी हुई हैं पथ को अधियाली में, काली - काली मतवाली छन छाया पथ मे फैी यीहड निबिड विपिन मग में है आमा बडी अकेली, ऐ 'नवीन' इस अंधियाले में ढूंढो हो उजियाला? बन्यु, तुम्हारी अकल-ममा का निवाला क्या दीवाला' डिस्टिवट जेल, गाजीपुर ३० निगम्बर १९१० तुम्हारे सामने सोच सोच कर गौर बाधता जाता हूँ मैं, सर वाता को गिन-गिन रमता जाता हूँ मैं, जब तुम आओगे तव सब कुछ कह डागा, और तुम्हारी सस्मित 'हा' वह वाहला लूंगा? किन्तु तुम्हारे सागने, पमा हो जाता है मुझे खोये हुए विमुग्ध-सा कोन बनाता है मुझे। 7 प्यारे प्राणो के परितप्त पवन के झोके, निसराये कुछ फूल सामने उन चरणो के, ऐसी हो करपना किया करता हूँ निशि दिन,- शून्य हृदय आकादा कुसुम चुनता हूँ गिन गिन | विन्तु तुम्हारी मृटुल-सी, गजुल मूर्ति निहार कर, वह परितप्त धयार रुक जाती कण्ठ-द्वार पर । हम विपपायी जनमक ३३१