पृष्ठ:हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण.pdf/८७

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( 4 ) का माहात्म्य वर्णन । दे० (ज-७३ एच) जुगल पद-रामप्रसाद कृत; वि० रामकृष्ण युगल जीवनदास-कवि हरसहाय के सं०१८५ रूप का वर्णन । दे० (ज-२५४ यी) के पूर्व धर्तमान, गाजीपुर निवासी। दे० जुगल भक्त विनोद-महाराज सावंतसिंह (नागरी. (ज-१०५ ए) दास)कृत, नि० का० सं०१८० वि० मिथिला जीवनदास-इनके विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं। देश के दो भक्तों, एक ब्राह्मण और दूसरे राजा, ककहरा दे० (ज-१४१) की कथा | दे० ख-३२०) जीवन मस्ताने-प्राणनाथ पन्नावाले के शिष्य, | जुगलमान चरित्र-श्रीकृष्णदास (पयाहारी,कन; सं० १७५७ के लगभग वर्तमान । लि. का० सं० वि० राधाकृष्ण का पंचक दहाई दे० (च-३३) परस्पर मान करना दे० ज-३०३) जीवराज (सिंगी)-महाराज प्रतापसिंह के दीवान, | जुगल रसमाधुरी-महाराज सावंतसिंह (नागरी रामनारायण कवि के आश्रयदाता; स० १८२७ दास) कृत; वि० कृष्णलीला वर्णन ! दे० (स- -के लगभग वर्तमान । दे० (ख-६३) १२१ तीन) जुगल आन्दिक-जुगलकिशोर कृत; वि० राधा- जुगलसत-श्रीभट्ट कृत; लि. का० सं० १९३६ कृष्ण की दिनचर्या । दे० (छ-२७५) वि० राधाकृष्ण बिहार वर्णन । दे० (क-३६)। जुगलकिशोर-इनके विषय में कुछ भी शात नहीं। इसी ग्रंथ की तीन प्रतियाँ और प्राप्त हुई हैं जुगल प्रान्तिक दे० (छ-२७५) जिनके लि० का० सं० १६२८, १४३ और जुगलकिशोरी भट्ट-ये बालकृष्ण के पुत्र और १८७७ है । दे० (छ-२३७) (ज-२६६) निहबलराम के पौत्र थे। सं० १०५ के लग- जुगल सिखनख-प्रताप कवि कृत; नि० का०सं० भग वर्तमान; जन्मभूमि कैथल ग्राम थी और १८८६, लि० का० सं०१६०६, वि० रामजानकी फिर दिल्ली में जाकर रहे । खाशुजाके आश्रित; का सिख नख वर्णन । दे० (च-५०) बादशाह मुहम्मद शाह ने इन्हें राजा को उपाधि जुगल स्वरूप विरहपत्रिका-दे० "युगल स्वरूप दी थी। विरह पत्रिका | दे०(छ-8 आई) -४५ बी) अलंकार निधि दे० (ज-२४२) जुद्धजोत्सव-जगन्नाथ कृत; नि० का० सं० १८.७, जुगलदास-जगन्नाथ रिचार्य के पिता; छतरपुर लि० का० सं० १८६८ वि० युद्धरीति-वर्णन । बुन्देलखंड निवासी सं० १८४५ के पूर्व वर्तमान। दे० (ज-१२३) दे० (ज-१२५) जुलफिकार खाँ-अली बहादुर खाँ के पुत्र; बुन्देख- जुगल नखशिख-अन्य नाम नखशिख रामचन्द्र खंड के शासक, सं० १६०३ के लगभगवर्तमान। जू को प्रताप साहि कृत; नि० का० सं० जुलफिकार सतसई दे० (3-२०) १८६; ति० का० सं० १६०६; वि० राम सीता | जुलफिकार सत्तसई-जुलफिकार स्वाँ कृत, नि० का नखशिख्न वर्णन । दे० (छ-१ आई) का० सं० १६०३, वि. विहोरी सतसई पर (ज-२२७) कुण्डलियों में टीका । दे० (ड-२०)