पृष्ठ:हिंदी कोविद रत्नमाला भाग 1.djvu/१४०

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लिखे जिनमें से बहुत से अधूरे हो रह गए और अनेक अवलों मप्र- यह सब कुछ था परंतु इनको आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं है इसलिये संयत् १९४० में इन्होंने मधुवनी जाकर यहां के तूल में ३५० मासिक की नौकरी कर ली। यहां भी इन्होंने अनेक व्याख्यान दिए और सभाए पापित की। यहां सब से बड़ा कान जो व्यास जी ने किया यह "संस्कृत संजीवनी समाज" का स्थापित करना है, इस समाज के द्वारा विहार की अनिश्चित शिक्षा प्रणाल का ऐसा सुधार हुपा कि जिससे अब संकड़ों छात्र प्रतिय संस्कृत शिक्षा पाते और उपाधि लाम करते हैं। संवत् १९४२ में मधुवनी से इस्तीफा देकर ये बांकीपुर च आए । इसके दूसरे वर्ष मुजफ्फरपुर के स्कूल के हेड पॉडत कर यहां भेजे गए । संयत् १९४४ में इनकी बदली मागलपुर के जिल स्कूल को हुई। इसी समय इन्होंने संस्कृत में 'सामवत नाटक' बना कर राजा साहेव दर्भगा को समर्पण किया और शिवराज विज नामक एक उपन्यास भी संस्कृत में लिखा । संवत् १९४८ में इन विहारी विहार को इस्त-लिखित पुस्तक चौरी चली गई। उसे उन्होंने पुनः पूर्ण किया । कांकरोली नरेशने पापको 'भारत-रत्न' को पदव प्रदान की थी और अयोध्यानरेश ने एक स्वर्ण पदक सहित 'शता वधान' की पदवी दी थी। छोटे बड़े सभी इनका सम्मान करते थे। संवत् १९५५-५६ इन्हें गवर्नमेंट पटना कालेज में प्रोफेसर का पद मिला परंतु ये शरीर से अस्वस्थ रहते थे मानों देव ने उस पद का भोग इनके भाग्य लिखा ही न था। व्यास जी बँगला, महाराष्ट्रो, गुजराती, मैंगरेजी आदि भाषाएं भी जानते थे। इन्होंने हिंदी संस्कृत में कुल ७८ ग्रंथ SR काशित हैं। उन्नीसवों नवंबर सन् १९९० को प्यास जी का परलोक वास काशी में हुआ।