लिखना बंद हुआ और हिंदोसाहित्य के भंडार में माप उपन्यासों ( 330 ) गोविंद त्रिपाठी जी से पधर्मोपयोगिनी सभा स्थापित करवाई। ये इन दोनों के मंत्री थे। पार यहां पर इन्होंने कुरमी जाति की पर्णव्यवस्था पर संस्थत में एक पुस्तक लिपी यो जो 'विस वृंदावन' नामक पत्र में छपा करती थी। इन्होंने पर्वधर्मोपयोगिनी सभा द्वारा एक पाठशाला स्थापित करवाई थी पार उसी सभा के प्रतिनिधि हो कर संवत् १९४७ में भारतधर्ममहामण्डल में सम्मिलित होने के लिये दिल्ली गए । यहाँ से आकर फिर ये काशी में वसने लगे। वायू हरिदचंद्र इनके माता- मह के साहित्य के शिष्य थे। इस संबंध से उनके यहां इनकी प्रायः यधिक बैठक रहने लगी पार उन्होंके सत्संग से हिंदी भाषा की तरफ रचि हुई। इस लिये मातामह गोस्वामी कृष्णचैतन्यदेवजी से भापासाहित्य तथा पिंगल के ग्रंथ पढ़ कर फिर भारतेंदु वावू हरिश्चंद्र तथा राजा शिवप्रसाद जी की प्रेरणा से गोस्वामी जी ने हिंदी में पहिले पहिल “प्रणयिनीपरिणय" नाम का एक उपन्यास लिखा। इन्होंने कविता, संगीत, जीवनचरित, नाटक, रूपक, योग, आदि भिन्न भिन्न विषयों पर कोई सौ पुस्तकें लिखो हैं । पहिले तो आप स्फुट लेख लिख कर हिंदीसमाचारपत्रों की सहायता करते रहे परंतु सन् १८९८ ई. से आप निज की एक उपन्यास मासिक पुस्तक प्रकाशित करने लगे। तब से आपका स्फुट लेख की भरमार करने लगे। इन्होंने अब तक कोई ६५ उपन्यास लिखे हैं। जो नवयुवकों को बहुत पसंद आते हैं। इसके पहिले ये समय समय पर कई एक हिंदी समाचारपत्रों के सहकारा सम्पादक रह चुके हैं। इन्होंने एक उपन्यास, एक चम् और तीन काव्य ग्रंथ संस्कृत में भी रचे हैं।
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