पक्षियों का कर्णविदारी भयकारी शब्द सुनाई देता है। समुद्र
की वायु का स्पर्श होते ही शरीर में फुरती पैदा होती है और
काम करने की इच्छा हो पाती है।
समुद्र का स्वरूप सदा बदलता रहता है। प्रातःकाल से
सायंकाल तक उसमें कितने ही उलट फेर हो जाते हैं। कल्पना
कीजिए कि हमारा निवास समुद्र-तट पर है और हम अपने
मकान की खिड़की में बैठे नीचे देख रहे हैं। खिड़की के नीचे
ही छोटा मैदान है और उसके आगे पृथ्वी नीची होती चली
गई है, सामने कोसों की दूरी तक पीलो रेत के सुंदर टीले चले
गए हैं। इधर भगवान् मरीचिमाली उदित होकर अपनी
झिलमिलाती हुई किरणों से समुद्र के विस्तीर्ण प्रदेश को प्रका-
शित कर रहे हैं। जैसे जैसे सूर्यनारायण ऊपर आते जाते हैं,
समुद्र प्रदेश प्रकाशित होता जाता है। दूर के उन्नत भाग कुहरे
के घन-पटल से ढंक जाते हैं। लगभग नौ बजे के समय
समुद्र का रंग फीका होने लगता है। आकाश नीले रंग का
होने लगता है और जहाँ तहाँ धुनी हुई स्वच्छ रुई के गालों
की तरह फैले हुए बादल दिखाई देते हैं। सामने के पथरीले
प्रदेश की तराई में खेत, जंगल, पत्थरों की कानें और पर्नु
दिखाई देती हैं। टूटी फूटी चट्टानें विचित्र छटा दिखाती हैं।
जहाँ प्रकाश नहीं पड़ता वहाँ का भाग श्यामल छाया में धुंधला
दिखाई पड़ता है। दोपहर के समय समुद्र अपना रंग बदल
लेता है। वह बिलकुल गहरा नीलांबर पहने दिखाई देता है