कूप-मंडूकता का भाव निकालने के लिये कबोर, नानक आदि का प्रादुर्भाव हुआ। अतः यह स्पष्ट है कि मानव जीवन की सामाजिक मति में साहित्य का स्थान बड़े गौरव का है।
अब यह प्रश्न उठता है कि जिस साहित्य के प्रभाव से संसार में इतने उलट-फेर हुए हैं, जिसने यूरोप के गौरव को बढ़ाया,जो मनुष्य-समाज का हितविधायक मित्र है वह क्या हमें राष्ट्र-निर्माण में सहायता नहीं दे सकता ? क्या हमारे देश की उन्नति करने में हमारा पथ-प्रदर्शक नहीं हो सकता ? हो अवश्य सकता है यदि हम लोग जीवन के व्यवहार में उसे अपने साथ साथ लेते चलें, उसे पीछे न छूटने दें। यदि हमारे जीवन का प्रवाह दूसरी ओर है तब हमारा प्रकृति- संयोग ही नहीं हो सकता।
अब तक वह जो हमारा सहायक नहीं हो सका है इसके दो मुख्य कारण हैं। एक तो इस संस्कृत देश की स्थिति एकांत रही है और दूसरे इसके प्राकृतिक विभव का वारापार नहीं है। इन्हीं कारणों से इसमें संघशक्ति का संचार जैसा चाहिए वैसा नहीं हो सकता और यह अब तक आलसी और सुख-लोलुप बना हुआ है। परंतु अब इन अवस्थाओं में परिवर्तन हो चला है। इसके विस्तार की दुर्गमता और स्थिति की एकांतता को आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों ने एक प्रकार से निर्मल कर दिया है और प्राकृतिक वैभव का लाभा- लाभ बहुत कुछ तीव्र जीवन-संग्राम की सामर्थ्य पर निर्भर है।