पृष्ठ:हिंदी निबंधमाला भाग 1.djvu/१५६

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तिरस्कार तब भी कर सकता हूँ।" बस इस गुलाम ने दुनिया के बादशाहों के बल की हद दिखला दी। बस इतने ही जोर और इतनी ही शेखी पर ये झूठे राजा शरीर को दुःख दे और मार पीटकर अनजान लोगों को डराते हैं। भोले लोग उनसे डरते रहते हैं। चूँकि सब लोग शरीर को अपने जीवन का केंद्र समझते हैं; इसलिये जहाँ किसी ने उनके शरीर पर जरा जोर से हाथ लगाया वहीं वे मारे डर के अधमरे हो जाते हैं; केवल शरीर-रक्षा के निमित्त ये लोग इन राजाओं की ऊपरी मन से पूजा करते हैं। जैसे ये राजा वैसा उनका सत्कार ! जिनका बल शरीर को जरा सी रस्सी से लटकाकर मार देने भर ही का है, भला, उनका और उन बलवान् और सच्चे राजाओं का क्या मुकाबला जिनका सिंहासन लोगों के हृदय-कमल की पँखड़ियों पर है ? सच्चे राजा अपने प्रेम के जोर से लोगों के दिलों को सदा के लिये बाँध देते हैं। दिलों पर हुकूमत करने- वाली फौज, तोप, बंदुक आदि के बिना ही वे शाहंशाह-जमाना होते हैं। मंसूर ने अपनी मौज में प्राकर कहा-"मैं खुदा हूँ"। दुनिया के बादशाह ने कहा-"यह काफिर है"। मगर मंसूर ने अपने कलाम को बंद न किया। पत्थर मार मारकर दुनिया ने उसके शरीर की बुरी दशा की; परंतु उस मर्द के हर बाल से ये ही शब्द निकले-'अनलहक'-"अहं ब्रह्मास्मि" "मैं ही ब्रह्म हूँ"। मंसूर का सूली पर चढ़ना उसके लिये सिर्फ खेल था। बादशाह ने समझा कि मंसूर मारा गया।