अपने आपको हर घड़ो और हर पल महान् से भी महान्
बनाने का नाम वीरता है वीरता के कारनामे तो एक गौण
बात हैं। असल वीर तो इन कारनामों को अपनी दिनचर्या
में लिखते भी नहीं। पेड़ तो जमीन से रस ग्रहण करने में लगा
रहता है। उसे यह खयाल ही नहीं होता कि मुझमें कितने
फल या फूल लगेंगे और कब लगेंगे। उसका काम तो अपने
प्रापको सत्य में रखना है-सत्य को अपने अंदर कूट कूटकर
भरना और अंदर ही अंदर बढ़ना है। उसे इस चिंता
से क्या मतलब कि कौन मेरे फल खायगा या मैंने कितने फल
लोगों को दिए।
वीरता का विकास नाना प्रकार से होता है। कभी तो
उसका विकास लड़ने मरने में, खून बहाने में, तलवार तोप के
सामने जान गँवाने में होता है; कभी प्रेम के मैदान में उसका
झंडा खड़ा होता है। कभी जीवन के गूढ़ तत्त्व और सत्य
की तलाश में बुद्ध जैसे राजा विरक्त होकर वीर हो जाते हैं
कभी किसी आदर्श पर और कभी किसी पर वीरता अपना
फरहरा लहराती है। परंतु वोरता एक प्रकार का इलहाम
या दैवी प्रेरणा है। जब कभी इसका विकास हुआ तभी एक
नया कमाल नजर आया; एक नया जलाल पैदा हुआ; एक नई
रौनक, एक नया रंग, एक नई बहार, एक नई प्रभुता संसार
में छा गई। वोरता हमेशा निराली और नई होती है। नया-
पन भी वीरता का एक खास रंग है। हिंदुओं के पुराणों की