बाहर तो जवाहिरात की खानों की ऊपरी जमीन की तरह कुछ भी दृष्टि में नहीं आता। वीर की जिंदगी मुश्किल से कभी कभी बाहर नजर आती है। उसका स्वभाव तो छिपे रहने का है।
वह लाल गुदड़ियों के भीतर छिपा रहता है। कंदराओ में, गोरों में, छोटी छोटी झोपड़ियों में बड़े बड़े वीर महात्मा छिपे रहते हैं। पुस्तकों और अखबारों को पढ़ने से या विद्वानों के व्याख्यानों को सुनने से तो बस ड्राइँग हाल के वीर पैदा होते हैं; उनकी वीरता अनजान लोगों से अपनी स्तुति सुनने तक खतम हो जाती है। असली वीर तो दुनिया की बनावट और लिखावट के माखौलों के लिये नहीं जीते।
हर बार दिखाव और नाम की खातिर छाती ठोंककर आगे बढ़ना और फिर पीछे हटना पहले दरजे की बुजदिली है। वीर तो यह समझता है कि मनुष्य का जीवन एक जरा सी चीज है। वह सिर्फ एक बार के लिये काफी है। मानों इस बंदूक में एक ही गोली है। हाँ, कायर पुरुष इसको बड़ा ही कीमती और कभी न टूटनेवाला हथियार समझते हैं। हर घड़ी आगे बढ़कर, और यह दिखाकर कि हम बड़े हैं, वे फिर पीछे इस गरज से हट जाते हैं कि उनका अनमोल जीवन किसी और अधिक बड़े काम के लिये बच जाय । बादल गरज गरजकर ऐसे ही चले जाते हैं, परंतु बरसनेवाले बादल जरा देर में बारह इंच तक बरस जाते हैं।