एक दूसरे का समागम हुआ कि हर एक व्यक्ति के सुंदर गुणे
का थोड़ा बहुत लोप कर सुस्वभाव की मंजरी झड़ जाती है
और परिमल नष्ट हो जाता है। क्या यह बात सत्य हो सकती
है ? अगर ऐसा है तो फिर मित्रता से क्योंकर लाभ हो
सकता है ? हमारी समझ में तो मित्र-मिलन से इसका विरुद्ध
परिणाम होता है। सुस्वभाव रूपी कोमल कमल संकुचित न
होकर मित्र-संग के सुख से अधिक विकसित होता है और
उसका रंग अधिक चटकीला हो जाता है।
किसी किसी का यह कहना है-'मित्र कभी न कभी शत्रु होगा और शत्रु मित्र होगा, यह समझकर उनसे जितना उचित हो उतना ही बर्ताव रखना चाहिए।' इसमें पहली बात के विषय में किसी का कुछ भी मत हो परंतु दूसरे विधान में बहुत कुछ दूरदर्शिता और सामंजस्य है। कितने ही लोग मित्रों की प्राप्ति करने की अपेक्षा शत्रुओं से शत्रुता मिटाने में अधिक परिश्रम करते हैं और उसमें आनंद मानते हैं पियागोरस सबको यह उपदेश करता है-"बहुत लोगों से मित्रता न करो," परंतु यदि हम योग्य मनुष्य का स्नेह संपादन करने में सावधान हैं तो इस उपदेश का कुछ भी महत्त्व नहीं रहता।
सहस सुहृद जो होंइ तउ, एकहु तजत बनै न ।
किंतु शत्रुजन एकहू, सालत हिय दिन रैन ॥
सचमुच ही इस संसार में दुर्भाग्यवश उदारचित्त मित्र
थोड़े हैं और एक भी क्षुद्र शत्रु हुआ तो वह हमारी हानि करने