वशिष्ठजी का प्रताप, विश्वामित्र का आदर, ऋष्यशृंग का तप,
जानकीजी का पातिव्रत, हनुमानजी की सेवा, विभोषण की
शरणागति और रघुनाथजी का कठोर कर्त्तव्य किसको स्मरण
नहीं है ? जो अपने "रामचंद्र" को जानता है वह अयोध्या,
मिथिला को कब भूला हुआ है। वह राक्षसों के अत्याचार,
ऋषियों के तपोबल और क्षत्रियों के धनुर्बाण के फल को अच्छी
तरह जानता है। उसको जब राम नाम का स्मरण होता है
और जब वह 'रामलीला' देखता है तभी यह ध्यान उसके जी
में आता है कि 'रावण आदि की तरह चलना न चाहिए,
रामादिक के समान प्रवृत्त होना चाहिए।
बल इसी शिक्षा को लक्ष्य कर हमारे समाज में 'रामनाम'
का आदर बढ़ा। ऐसा पावन और शिक्षाप्रद चरित्र न किसी
दूसरे अवतार का और न किसी मनुष्य का ही है ! भगवान
रामचंद्र देव को हम मर्त्यलोक का राजा नहीं समझते, अखिल
ब्रह्मांड का नायक समझते हैं। यों तो अादरणीय रघुवंश में
सभी पुण्यश्लोक महाराज हुए, पर हमारे महाप्रभु 'राम' के
समान सर्वत्र रमणशोल अन्य कौन हो सकता है ? मनुष्य
ही कैसा पुरुषोत्तम क्यों न हो वह अंत को मनुष्य है। इस-
लिये आर्यवंश में राम ही का जयजयकार हुआ और है और
जब तक एक भी हिंदू पृथ्वीतल पर रहेगा, होता रहेगा। हमारे
आलाप में, व्यवहार में, जीवन में, मरण में, सर्वत्र 'राम नाम'
का संबंध है। इस संबंध को दृढ़ रखने के लिये ही प्रतिवर्ष