पाठक महानुभावो ! आप पहले थोड़ा प्रकृति का वर्णन
सुन लीजिए और देखिए कि यहाँ वह किस रूप में विस्तृत है।
नगर के चतुर्दिक पर्वतों के छोटे छोटे शृंग फैले हुए हैं। इन पर
पलाश, खैर, बरगद, पीपल के वन के वन खड़े हैं। इन्हीं के
बीच बीच में कहीं शिवदिर, कहीं गिरे पड़े कोट, कहीं
तिद्वारी देखने में आती हैं। तु भी बहुतायत से इन वनों में
रहते हैं। पर्वतों के बीच बीच में बड़े बड़े नाले हैं जो जड़ी
बूटियों से भरे पड़े हैं। बबुई, दोनामरुमा और तुलसी के
पौधे समभूमि पर सहस्रों देख पड़ते हैं। निर्मल वेत्रवती पर्वत
को विदारकर बहती है और पत्थरों की चट्टानों से समभूमि
पर, जो पथरीली है, गिरती है, जिससे एक विशेष आनंददायक
वाद्यनाद मीलों से कर्णकुहर में प्रवेश करता है और जलकण
उड़ उड़कर मुक्ताहार की छबि दिखाते तथा रविकिरण के संयोग
से सैकड़ों इंद्रधनुष बनाते हैं। नदी की थाह में नाना रंग
के पत्थरों के छोटे छोटे टुकड़े पड़े रहते हैं, जिन पर वेग से
बहती हुई धारा नवरत्नों की चादर पर बहती हुई जलधारा की
छटा दिखाती है। नदी के उभय तटों पर उँची पथरीली
भूमि है। इसी पर पुराना नगर बसा था जिसके एंडहर
अद्यापि कई मील तक विस्तृत हैं। नदी के दोनों तटों पर
देवालयों की पाँते', कूप, बावली, राजाओं की समाधियों पर
के मंदिर दिखाई पड़ते हैं। जब वेवती ओड़छा के मध्य में
पहुँचती है तब वह दो धाराओं में विभक्त हो जाती है और
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