पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/१६

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प्राचीन भाषाएँ की इतनी प्राचीनना नहीं स्वीकार करते। कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' घोटक में विक्षिप्त पुरूरवा की उक्ति में छंद और रूप दोनों के विचार से कुछ कुछ अपभ्रंश की छाया देख पड़ती है. और इसलिये अपनंश का फाल थोर भी दो सौ वर्ष पहले चला जाता है, पर उसमें अपभ्रंश के अत्यंत साधारण लक्षण-जैसे, पदांतर्गत 'म' के स्थान में 'धैं' और स्वार्थिक प्रत्यय 'इल्स' 'अल्ल' तथा 'ड'-न मिलने के कारण उसे भी याकोवी श्रादि बहुत से विद्वान् पाठांतर या प्रक्षिप्त मानते हैं। जो कुछ हो, पर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि.अपभ्रंश के बीज ईसा की दूसरी शताब्दी में प्रचलित प्राकत में अवश्य विद्यमान थे। श्रारंभ में अपभ्रंश शब्द किसी भाषा के लिये नहीं प्रयुक्त होता था। सातर लोग निरक्षरों की भापा के शब्दों को अपभ्रंश, अपशब्द या अपमाषा कहा करते थे। पतंजलि मुनि ने अपभ्रंश शब्द का प्रयोग महाभाष्य में इस प्रकार किया है-भूयांसो हापशब्दाः अल्पीयांसः शब्दाः । एकैकस्य शब्दस्य यहयोऽपभ्रंशाः । तद्यथा। गौरित्यस्य गावी गोणी गोता गोपातलिकेत्येवमादयोऽपभ्रंशाः। अर्थात् अपशब्द यहुत है और शब्द थोड़े हैं। एक एक शब्द के बहुत से अपभ्रंश पाए जाते हैं। जैसे-गो शब्द के गाची, गोणी, गोता, गोपातलिका आदि अपभ्रंश हैं। यहाँ अप- भ्रंश शब्द से पतंजलि उन शब्दों का ग्रहण करते हैं जो उनके समय में संस्कत के बदले स्थान स्थान पर बोले जाते थे। ऊपर के श्रवतरण में. जिन श्रपदंशों का उल्लेख है, उनमें 'गावी' बँगला में 'गाभी' के रूप में और 'गाणी' पाली से होता हुआ सिंधी में ज्यों का त्यों अब तक प्रच- लित है। शेप शब्दों का पता अन्वेपकों को लगाना चाहिए। श्रार्य अपने शब्दों की विशुद्धता के कट्टर पक्षपाती थे। वे पहले अपशब्द ही के लिये म्लेच्छ शब्द का प्रयोग करते थे। पतंजलि ने लिखा है-न म्लेच्छितवै नापभापितवै म्लेच्छो ह वा एप यदपशब्दः । अर्थात् म्लेच्छ % अपभापण न करना चाहिए, क्योंकि अपशब्द ही म्लेच्छ है। अमर ने इसी धातु से उत्पन्न म्लिष्ट शन्द का अर्थ 'विस्पष्ट किया है। इससे यह वात सिद्ध होती है कि आर्य शुद्ध उच्चारण करके अपनी भाषा की रक्षा का बड़ा प्रयत्न करते थे; और जो लोग उनके शब्दों का ठीक उच्चा- रण न कर सकते थे, उन्हें और उनके द्वारा उच्चरित शब्दों को म्लेच्छ कहते थे। म्लेच्छ शब्द उस समय अाजकल की भाँति घृणा घा निंदा- व्यंजक नहीं था। अस्तु; जब मध्यवर्ती भाषाओं (पाली, शौरसेनी, तथा अन्य प्राकृतो) का रूप स्थिर होकर साहित्य में अवरुद्ध हो गया एवं संस्कृत