पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३५२

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३५२ हिंदी साहित्य विहारी-सतसई के टीकाकारों को पुरस्कृत होने की श्राशा रहती थी। देव को यह सुविधा नहीं मिल सकी। देव का काव्यक्षेत्र बड़ा व्यापक और विस्तृत था। रीति काल के कवियों में इतनी व्यापकता और कहीं नहीं देस पड़ती। देव को सौदर्य-विवृति सत्य अतः मर्मस्पर्शिनी है। परंतु देव के गायन का मुख्य विषय प्रेम है। उनका प्रेम यद्यपि लौकिक ही कहा जायगा परंतु उनकी तन्मयता के कारण उसमें उनके अंतरतम की पुकार सुन पड़ती है। यही पुकार साहित्य की उत्कृष्टता को सूचिका है। देव की प्रारंभिक रचनाओं में यौवन का उन्माद है, उनमें शृंगारिकता कूट कूट कर भरी है। पर प्रौढ़ावस्था में पहुँचकर उनको रचनाएँ बहुत कुछ संयत भी हुई। उनकी दर्शनपच्चीसियों में अधिकतर पूत भावनाएँ सन्निविष्ट है। यह सय कहने का श्राशय इतना ही है कि देव की रचनाओं में जो ऋमिक विकास मिलता है, वह किसी सच्चे कवि के लिये परम आवश्यक है। रीति-काल के अन्य किसी कवि की कृतियों में अंतर की प्रेरणा से घटित कमिक परिवर्तन का इतना स्पष्ट पता नहीं लगता। जिस कवि को भाचों के व्यापक क्षेत्र में पाना पड़ता है, उसे भाषा की शक्ति भी धढ़ानी पड़ती है, और कल्पना को भी बहुत कुछ विस्तृत करना पड़ता है। देव का शब्द-भांडार और कल्पना-कोप भी विक- सित और समृद्ध था। हाँ, भाषा को अलंकार-समन्वित करने और शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने की जो सामान्य प्रवृत्ति, कालदोप बनकर ग्रज- भाषा में व्याप्त हो रही थी, उससे देव भी बच नहीं सके हैं। उनकी कल्पना अधिकतर काव्योपयुक्त पर कहीं कहीं पेचीली और चक्करदार भी हो गई है। __ रीति-काल के थोड़े से श्राचार्यों में देव की गणना की जाती है। रीति संबंधिनी उनकी कुछ स्वतंत्र उद्मावनाओं का उल्लेख मिश्रबंधुनों ने किया है। पांडित्य की दृष्टि से रीति काल के समस्त कवियों में देव का स्थान आचार्य केशवदास से कुछ नीचे माना जा सकता है, कला- कार की दृष्टि से वे विहारी से निम्न ठहर सकते हैं, परंतु अनुभव और सूदप्रदर्शिता में उच्च कोटि की काव्यप्रतिभा का मिश्रण करने और सुंदर कल्पनानो की अनोखी शक्ति लेकर विकसित होने के कारण हिंदी काव्यक्षेत्र में सहृदय और प्रेमी कवि देव को रीतिकाल का प्रमुख कवि स्वीकार करना पड़ता है। होगा, प्रतापगढ़ (अवध) के रहनेवाले कायस्थ कवि भिखारी- दास की रचनाओं में काव्यांगों का विवेचन अच्छे विस्तार से किया गया