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(दूसरा प्रकरण)
हिन्दी साहित्य का पूर्व रूप और आरम्भिक काल
आविर्भाव-काल ही से किसी भाषा में साहित्य की रचना नहीं होने लगती। भाषा जब सर्वसाधारण में प्रचलित और शब्द सम्पत्ति सम्पन्न बन कर कुछ पुष्टता लाभ करती है तभी उसमें साहित्य का सृजन होता है। इस साहित्य का आदिम रूप प्रायः छोटे छोटे गीतों अथवा साधारण पद्यों के रूप में पहले प्रकटित होता है और यथा काल वही विकसित हो कर अपेक्षित विस्तार-लाभ करता है। हिन्दी भाषा के लिये भी यही बात कही जा सकती है। इतिहास बतलाता है कि उसमें आठवीं ईस्वी शताब्दी में साहित्य-रचना होने लगी थी। इस सूत्र से यदि उसका आविर्भाव-काल छठीं या सातवीं शताब्दी मान लिया जाय तो मैं समझता हूं, असंगत न होगा। हमारा विषय साहित्य का विकास ही है इसलिये हम इस विचार में प्रवृत्त होते हैं कि जिस समय हिन्दी भाषा साहित्य रूपमें गृहीत हो रही थी उस समय की राजनैतिक धार्म्मिक और सामाजिक परिस्थिति क्या थी।
हमने ऊपर लिखा है हिन्दी-साहित्य का आविर्भाव-काल अष्टम शताब्दी का आरम्भ माना जाता है। इस समय हिन्दी साहित्य के विस्तार-क्षेत्र की राजनैतिक, धार्म्मिक एवं सामाजिक दशा समुन्नत नहीं थी। सातवें शतक के मध्यकाल में ही उत्तरीय भारत का प्रसिद्ध शक्तिशाली सम्राट् हर्षवर्धन स्वर्गगामी हो गया था। और उसके साम्राज्य के छिन्न भिन्न होने से देश की उस शक्ति का नाश हो गया था जिसने अनेक राजाओं और महाराजाओं को एकतासूत्र में बाँध रखा था। उस समय उत्तरीय भारत में एक प्रकार की अनियन्त्रित सत्ता राज्य कर रही थी और स्थान स्थान पर छोटे छोटे राजे अपनी अपनी क्षीण-क्षमता का विस्तार कर रहे थे। यही नहीं, उनमें प्रतिदिन कलह की मात्रा बढ़ रही थी और वे लोग परस्पर एक दूसरे को द्वेष की दृष्टि से देखते थे। जिससे वह संगठन देश में नहीं