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भगीरथ प्रयत्न किया और बहुत कुछ सफलता भी लाभ की। नेपाल में आज भी शैव धर्म का बहुत बड़ा प्रभाव है। जिस समय सिद्ध लोग अपने आडम्बरों द्वारा सर्व-साधारण को उन्मार्ग गामी बना रहे थे, उस समय गोरखनाथ जी ने किस प्रकार सन्मार्ग का प्रचार सर्व साधारण में किया, उसका प्रमाण उनका धर्म और उनकी वे सुन्दर रचनाएँ हैं जिनमें लोक-हितकारी शिक्षायें भरी पड़ी हैं। गोरखनाथ जी की महत्ता इतनी प्रभाव शालिनी थी कि उसने पाप-पङ्क में निमग्न अपने गुरु मत्स्येन्द्र नाथ (मछंदर नाथ) का भी उद्धार किया। जो पद्य ऊपर उद्धृत किये गये हैं उनमें से तीसरे, चौथे, और पाँचवें तथा छठें पद्यों को देखिये। उनके देखने से आप लोगों को यह ज्ञात हो जायगा कि उन्होंने किस प्रकार अपने गुरु को सांसारिक व्यसनों से बचने की शिक्षा दी और कैसे उनको स्त्रियों के प्रपंच से विरत रहने का उपदेश दिया। उन्होंने आत्म परिचय और अजरामर होने का मार्ग उन्हें बड़े सुन्दर शब्दों में बतलाया और कभी कभी उनमें आत्मग्लानि उत्पन्न करने की चेष्टा भी की, जैसा छठें पद्य के देखने से प्रकट होता है। उनका यह उद्योग अपने गुरुदेव के विषय ही में नहीं देखा जाता सर्व- साधारण पर भी उनकी शिक्षाओं ने बड़ा प्रभाव डाला, और इस प्रकार उस समय के पतन-प्राय हिन्दू समाज का बहुत बड़ा उपकार किया। उनकी रचनाओं में योग-सम्बन्धी बहुत सी बातें पाई जाती हैं। उद्धृत पद्यों में से पहले दूसरे पद्य ऐसे ही हैं। उनके सातवें, आठवें, नवें पद्यों में ऐसी शिक्षायें हैं जिन्हें सब सन्मार्ग के पथिकों को ग्रहण करना चाहिये। हिन्दी-साहित्य में इस प्रकार को धार्मिक शिक्षाओं के आदि प्रचारक भी गोरखनाथजी ही हैं। इन सब बातों पर दृष्टि रख उनकी रचनाओं पर विचार करने से वे बहुमूल्य ज्ञात होती हैं। और उनसे इस बात का भी पता चलता है कि किस प्रकार आदि में हिन्दी अपने तद्भव रूप में प्रकट हुई॥
इसी चौदहवीं ईसवी शताब्दी में विनय-प्रभु जैन और छोटे छोटे कई दूसरे जैन कवि होगये हैं, जिनकी रचनायें लगभग वैसी ही हैं जैसी ऊपर लिखे गये जैन कवियों की हैं। उनमें कोई विशेषता ऐसी नहीं पाई जाती कि जिससे उनकी पृथक् चर्चा की आवश्यकता हो। इसलिये मैं उनलोगों