पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१८७

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( १७३ ) तब से म्षा उंचल पांचल। सद्गुरु वोहे करिह सुनिचल । जबै मूषा एरचा तूटअ। भुसुक भणअ तबै बांधन फिट । भुसुक छाया। निसि अँधियारी सँसार सँचारा। अमिय भक्स्व मूसा करत अहारा । मार रे जोगिया मूसा पवना । जेहिते टूटै अवना गवना भव विदार मूसा खनै खाता ! चंचल मूसा करि नाश जाता। मूमा उरधन गगने दीठि करै मन बिनु ध्यान । तबसो मूसा चञ्चल बंचल । सतगुरु बोधे करु मो निहचल । जयहिं मृमा आचार टूटइ भुसुक भनत तव बन्धन पू फाटइ । काला वन । जयि तुझे भुसुक अहेइ जाइबें मारि हसि पंच जना । नलिनी बन पइसन्ते होहिसि एकुमणा । जीवन्ते भेला बिहणि मयेलण अणि । हण बिनु मासे भुसुक पद्म बन पड़ सहिणि ।