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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१८७

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तब से म्षा उंचल पांचल।
सद्गुरु वोहे करिह सुनिचल ।
जबै मूषा एरचा तूटअ।
भुसुक भणअ तबै बांधन फिट ।

भुसुक

छाया--

निसि अँधियारी सँसार सँचारा।
अमिय भक्स्व मूसा करत अहारा ।
मार रे जोगिया मूसा पवना ।
जेहिते टूटै अवना गवना।
भव विदार मूसा खनै खाता !
चंचल मूसा करि नाश जाता।
कला मूसा उरधन बन।
गगने दीठि करै मन बिनु ध्यान ।
तबसो मूसा चञ्चल बंचल ।
सतगुरु बोधे करु मो निहचल ।
जबहिं मूसा आचार टूटइ
भुसुक भनत तब बन्धन पू फाटइ ।

२--मूल--

जयि तुज्झे भुसुक अहेइ जाइबें मारि हसि पंच जना ।
नलिनी बन पइसन्ते होहिसि एकुमणा ।
जीवन्ते भेला बिहणि मयेलण अणि ।
हण बिनु मासे भुसुक पद्म बन पड़ सहिणि ।