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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१८९

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( १७५ ) मेरे संगी है जणा एक वैष्णव एक राम । वो है दाता मुक्ति का वो सुमिरावै नाम । कबीर धनि ते सुन्दरी जिन जाया बस्नव पूत । राम सुमिरि निरभय हुआ सब जग गया अऊत । साकत सुनहा दोनों भाई । एक निंदै एक भौंकत जाई। किन्तु क्या उनका यह भाव स्थिर रहा ? मेरा विचार है, नहीं, वह बरावर बदलता रहा । इसका प्रमाण स्वयं उनकी रचनायें हैं। उन्होंने गोरखनाथ को गोष्ठी नामक एक ग्रंथ की रचना भी की है। वे शेख तक़ी के पास भी जिज्ञासु बन कर जाते थे और ऊंजी के पीर से भी शिक्षा लेते थे। ऐसा करना अनुचित नहीं । ज्ञान प्राप्त करने के लिये अनेक महात्माओं का सत्संग करना निन्दनीय नहीं-किन्तु यह देखा जाता है कि कबीर साहब कभी वैष्णव हैं, कभी पीर. कभी योगी और कभी सूफ़ी और कभी वेदान्त के अनुरागी । उनका यह बहुरूप श्रद्धाल के लिये भले ही उनकी महत्ता का परिचायक हो, परन्तु एक समीक्षक की दृष्टि इस प्रणाली को संदिग्ध हो कर अवश्य देखेगी। मेग विचार है कि अपने सिद्धान्त के प्रचार के लिये उन्होंने समय समय पर उपयुक्त पद्धति ग्रहण की है और जनता के मानस पर अपनी सर्वज्ञता की धाक जमा कर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का विशेष ध्यान रखा है। इसी लिये वे अनेक रूप रूपाय हैं। मैंने उनकी रचनाओं का आधार ढूढ़ने की जो चेष्टा की है उसका केवल इतना ही उद्देश्य है कि यह निश्चित हो सके कि वास्तव में उनकी रचनायें उनके कथनानुसार अभूतपूर्व और अलौकिक हैं या उनका स्रोत किसी पूर्ववर्ती ज्ञान-सरोवर से ही प्रसूत है । 'सरस्वती' में 'चौरासी सिद्ध' नामक लेख के लेखक बौद्ध विद्वान् राहुल सांस्कृतायन ने कबीर साहब की रचनाओं पर सिद्धों की छाप बतलाते हुये यह लिखा है कि 'कबीर का सम्बन्ध सिद्धों से मिलाना उतना आसान नहीं है।" किन्तु मैं समझता हूं कि यह आसान है. यदि सिद्धों के साथ नाथ सम्प्रदाय वालों