पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१९१

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२-दामिनि दमकि घटा घहरानी बिरह उठे घनघोर । चित चातक है दादुर बोले ओहि बन बोलत मोर। प्रीतम को पतिया लिख भेजों प्रेम प्रीतिमसि लाय । वेगि मिलो जन नामदेव को जनम अकारथ जाय । हिन्द पूजै देहरा, मुस्सलमान मसीत । नामा सोई सेविया, ना देहरा न मसीत।। मेरा विचार है कि कबीर साहब की रचनायें नामदेव के प्रभाव से अधिक प्रभावित हैं। फिर यह कहना कि सिद्धों के साथ कबीर की शृंखला मिलाना आसान नहीं, कहाँ तक संगत है। गुरु गोरख नाथ के मानस के साथ अपने मानम को सम्बन्धित कर कबीर साहव उनकी महत्ता किस प्रकार स्वीकार करते हैं उसको उनका यह कथन प्रकट करता है- गोरख भरथरि गोपीचंदा। तामनसो मिलि-करें अनंदा। अकल निरंजन सकल सरीरा। तामन सौ मिलि रहा कबीरा वास्तव बात यह है कि कबीर साहब के लगभग समस्त सिद्धांत और विचार वैष्णवधर्म और महात्मा गोरखनाथ के ज्ञानमार्ग और योग मार्ग अथच उनकी परम्परा के महात्माओं की अनुभूतियों पर ही अधिकतर अवलम्बित हैं। और उन सिद्धों के विचारों से भी सम्बन्ध रखते हैं। जिनकी चर्चा ऊपर की गई है। सारांश यह कि जैसे स्वयं कबीर साहब सामयिकता के अवतार और नवोन धर्म-प्रवर्तन के इच्छुक हैं वैसे ही उनकी रचनायें भी पूर्ववर्ती सिद्ध और महात्माओं के भावों और विचारों से ओत प्रोत हैं। किन्तु उनमें कुछ व्यक्तिगत विलक्षणतायें अवश्य थीं, जिनका विकास उनकी रचनाओं में भी दृष्टिगत होता है। उनकी इन्हीं विशेपताओं ने उन्हें कुछ लोगों की दृष्टि में निगुण धारा का प्रवर्तक बना रखा है । परन्तु यदि सूक्ष्म दृष्टि और विवेचनात्मक बुद्धि से निरीक्षण किया जाय तो यह बात स्पष्ट हो जाती है