पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१९३

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( १७६ ) आकासे उड़ि गयो विहंगम पाछे खोज न दरसी लो। कहै कबार सतगुरु दाया तें बिरला सतपद् परसी लो। २--साधो सतगुरु अलख लखाया जब आप आप दरसाया। बीज मध्य ज्यों वृच्छा दसै बृच्छा मद्धे छाया। परमातम में आतम तैसे आतम मढे माया । ज्यों नभ मद्धे सुन्न देखिये सुन्न अंड आकारा । निह अच्छर ते अच्छर तैसे अच्छर छर विस्तारा । ज्यों रवि मढे किरन देखिये किरन मध्य परकासा । परमातम में जीव ब्रह्म इमि जीव मध्य तिमि साँसा स्वाँसा मध्ये सब्द देखिये अर्थ मन्द के माहीं । ब्रह्म ते जीव जीव ते मन यों न्यारा मिला सदाहीं । आपहि बीज वृच्छ अंकरा आप फूल फल छाया । आपहिं सर किरन परकासा आप ब्रह्म जिव माया। अंडाकार सुन्न नभ आपै म्याँम मन्द अरु छाया । निह अच्छर अच्छर छर आपै मन जिउ ब्रह्म समाया। आतम में परमातम दरसै परमातम में झाई। झाई में परछाई दसै, लखै कवीरा माई । ३--जीवन को मरिबो भलो, जे मरि जाने कोय । मरने पहिले जे मरें, तो अजरावर होय । मन मारा ममता मुई, अहं जोगी था सो रम रहा, आमणि रही विभूति । मरता मरता जगमुआ, औमर मुआ न कोय । कबिरा ऐसे मर मुआ, बहुरि न मरना होय । मय छूट