सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२४२)

बिनु पावस पावस रितु आई देखत हैं बिदमान।
अबधौ कहा कियौ चाहति है छाइहु निरगुन ज्ञान।
सुनि प्रिय सखा स्याम सुंदर के जानत सकल सुभाय।
जैसे मिलैं सूर के स्वामी तैसी करहु उपाय।
१४—नैना भये अनाथ हमारे।
मदन गोपाल वहां ते सजनी सुनियत दूरि सिधारे।
वे जलसर हम मीन बापुरी कैसे जिवहिं निनारे।
हम चातकी चकोर स्याम घन वदन सुधा निधि प्यारे।
मधुवन बसत आस दरसन की जोइ नैन मग हारे।
सूर के स्याम करी पिय ऐसी मृतक हुते पुनि मारे।
१५—सखीरी स्याम सबै एकसार।
मीठे बचन सुहाये बोलत अन्तर जारन हार।
भवर कुरंग काम अरु कोकिल कपटिन की चटसार।
सुनहु सखीरी दोष न काहू जो विधि लिखो लिलार।
उमड़ी घटा नाखि कै पावस प्रेम की प्रीति अपार।
सूरदास सरिता सर पोषत चातक करत पुकार।

भाषा कविवर सूरदास के हाथों में पड़कर धन्य हो गई। आरम्भिककाल से लेकर उनके समय तक आपने हिन्दी भाषा का अनेक रूप अवलोकन किया। परन्तु जो अलौकिकता उनकी भाषा में दृष्टिगत हुई वह असाधारण है। जैसी उसमें प्राञ्जलता है वैसी ही मिठास है। जितनी ही वह सरस है उतनी ही कोमल। जैसा उसमें प्रवाह है वैसा ही ओज। भावमूर्तिमन्त होकर जैसा उसमें दृष्टिगत होता है, वैसे ही व्यंजना भी उसमें अठखेलियाँ करती अवगत होती है। जैसा श्रृंगार-रस उसमें सुविकसित दिखलाई पड़ता है, वैसा हो वात्सल्य-रस छलकता मिलता है।