७—'समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो'।
८—'जब दोनों मिलि एक वरन भये सुरसरि नाम परो'
यह प्रणाली कहां तक युक्ति-संगत है, इसमें मत भिन्नता है। किन्तु जिस मात्रा में विशेष स्थलों पर सूरदासजी ने ऐसा किया है, मेरा विचार है कि वह ग्राह्य है। क्योंकि इससे एक प्रकार से विशेष शब्द-विकृति की रक्षा होती है। दूसरी बात यह कि यदि कुछ शब्दों को हस्त्र कर दिया जाय तो उसका अर्थ ही दूसरा हो जाता है। जैसे 'भये' को 'भय' लिख कर यदि छन्दोमंग की रक्षा की जाय तो अर्थापत्ति सामने आती है। प्राकृत भाषा में भी यह प्रणाली गृहीत देखी जाती है। उर्दू कविताओं की पंक्ति पंक्ति में इस प्रकार का प्रयोग मिलता है। हिन्दी में विशेष अवस्था और अल्प मात्रा ही में कहीं ऐसा किया जाता है। यह पिंगल नियमावली के अन्तर्गत भी है। जैसे विशेष स्थानों में हस्व को दीर्घ और दीर्घ को हस्व लिखने का नियम है उसी प्रकार संकीर्ण स्थलों पर हस्व को दीर्घ और दीर्घ को हस्व पढ़ने की प्रणाली भी है।
४— प्राकृत और अपभ्रंश में प्रायः कारक चिन्हों का लोप देखा जाता है। सूरदासजी की रचनाओं में भी इस प्रकार की पंक्तियां मिलती हैं। कुछ तो कारकों का लोप साधन बोलचाल की भाषा पर अवलम्बित है और कुछ कवितागत अथवा साहित्यिक प्रयोगों पर, नीचे लिखे हुये वाक्य इसी प्रकार के हैं:—
'जो विधि लिखो लिलार', 'मधुकर अंबुज रस चाख्यो', 'मैं कैसे करि पायो' इन वाक्यों में कर्ता का ने चिन्ह लुप्त है। 'कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावे', 'प्रभु मोरे औगुन चित न धरो', 'मरकट मूठि छोड़ि नहिं दीन्हीं', 'सरिता सरपोपत' इन वाक्यों में कर्म का चिन्ह 'को' अन्तर्हित है। 'नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो' इस वाक्य में करण का 'से' चिन्ह लुप्त है।
'जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ' में सम्प्रदान का चिन्ह 'को' या 'केलिये' का लोप किया गया है। 'बरबस कूप परो', 'मेरे मुख लपटायो'