सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२८४)


ब्रजभाषा की प्रधानता में कोई अन्तर नहीं आता । केशवदासजी ने यथा स्थान बुंदेलखण्डो शब्दों का जो अपने ग्रंथ में प्रयोग किया है मेरा विचार है कि इसी दृष्टि से । ब्रजभाषा के जो नियम हैं वे सब उनकी रचना में पाये जाते हैं । इसलिये उन नियमों पर उनकी रचना को कसना व्यर्थ विस्तार होगा । मैं उन्हीं बातों का उल्लेख करूंगा जो व्रजभाषा से कुछ भिन्नता रखती हैं ॥

मैं पहले कह चुका हूं कि केशवदासजी संस्कृत के पंडित थे । ऐसी अवस्था में उनका संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुद्ध रूप में लिखने के लिये सचेष्ट रहना स्वाभाविकता है। वे अपनी रचनाओं में यथा शक्ति संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुद्ध रूप में लिखना ही पसन्द करते हैं । यदि कोई कारण - बिशेष उनके सामने उपस्थित न हो जावे । एक बात और है । वह यह कि बुंदेलखण्ड में णकार और शकार का प्रयोग प्रायः बोलचाल में अपने शुद्ध रूप में किया जाता है । इसलिये भी उन्हों एक वात संस्कृत के उन तत्सम शब्दों को जिनमें कार और शकार आते हैं। प्रायः शुद्ध रूप में हो लिखने की चेष्टा की है । उसी अवस्था में उनको बदला है जब उनके परिवर्तन से या तो पद्य में कोई सौन्दर्य्य आता है या अनुप्रास की आवश्यकता उन्हें विवश करती है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने व्रजभाषा और अवधी के नियमों का पूरा पालन किया किन्तु जब उन्होंने किसी अन्य प्रान्त का शब्द लिया । तो उसको उसी रूप में लिखा । वे रामायण के अरण्य कांड में एक स्थान पर रावन के विषय में लिखते हैं:-

इत उत चितै चला भणिआई ' । भणिआ शब्द बुंदेलखण्डी है । उसका अर्थ है 'चोर' भणिआई' का अर्थ है चोरों ।गोस्वामी जी चाहते तो उसको 'भनिआई अवधी के नियमानुसार बना लेते, परन्तु ऐसा करने में अर्ध-बोध में बाधा पड़ती । एक तो शब्द दूसरे प्रान्त का दूसरे यदि वह अपने वास्तव रूप में न हो तो उसका अर्थ बोध सुलभ कैसे होगा ? इसलिये उसका अपने मुख्य रूप में लिखा जाना ही युक्ति-संगत था । गोस्वामीजी ने ऐसा ही किया ।केशवदासजी की दृष्टि भी