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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३००

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उत्पन्न किया है वह उन शब्दों के तत्सम रूप में लिखे जाने से नष्ट हो जाता । इस लिये उनको इस पद्य में तत्सम रूप में नहीं देख पाते। ऐसी हो और बातें बतलायी जा सकती हैं कि जिनके कारण से केशवदास जी एक हो शब्द को भिन्न रूपों में लिखते हैं। इससे यह न समझना चाहिये कि उनका कोई सिद्धान्त नहीं, वे जब जिस रूप में चाहते हैं किसी शब्द को लिख देते हैं। मेरा विचार है कि उन्होंने जो कुछ किया हे नियम के अन्तर्गत ही रह कर किया है। दो ही रूप उनको रचना में आते हैं या तो संस्कृत शब्द अपने तत्सम रूप में आता है अथवा ब्रज-भाषा के तद्भव रूप में, और यह दोनों रूप नियम के अन्तर्गत हैं। ऐसी अवस्था में यह सोचना कि शब्द व्यवहार में उनका कोई सिद्धान्त नहीं, युक्ति-संगत नहीं।

मैंने यह कहा है कि उनके ग्रन्थ की मुख्य भाषा ब्रजभाषा ही है । इसका प्रमाण समस्त उद्घृत पघों में मौजूद है। उनमें अधिकांश ब्रजभाषा के नियमों का पालन है। युक्त-विकर्प, कारकलोप 'णकार', 'शकार', 'क्षकार' के स्थान पर न', 'स', और छ' का प्रयोग, प्राकृत भाषा के प्राचीन शब्दों का व्यवहार. पञ्चम वर्ण के स्थान पर अधिकांश अनुस्वार का ग्रहण इत्यादि जितनी विशेप बानं ब्रजभापा की हैं वे सब उनकी रचना में पायी जाती हैं । उद्धृत पद्यों में से पहले, दूसरे और तीसरे नम्वर पर लिखे गये कबित्तों में तो ब्रजभाषा की सभी विशेषतायें मूर्तिमन्त हो कर विराजमान हैं । हां. चुछ तत्सम शब्द अपने शुद्ध रूप में अवश्य आये हैं। इसका हेतु मैं ऊपर लिम्व चुका हूं। उनकी रचना में गौरमदाइन', 'स्या','बोक'. 'बारोठा', समदौ, भाँड्यो' आदि शब्द भी आते हैं ।

नीचे लिखी हुई पंक्तियां इसके प्रमाण हैं:-

१--देवन स्यों जनु देवसभा शुभ सीय स्वयम्बर देखन आई।
२--"दुहिता समदौ सुख पाय अबै।"
३--कहूं भांड़ भांड़यो करैं मान पावै ।
४--कहूं बोक बाँके कहूं मेष सूरे ।