पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४३६

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चाह के रंग में भीज्यो हियो
बिछुरे मिले प्रीतम सांति न मानै।
भाषा प्रवीन सुछंद सदा रहै
जो धन जू के कबित्त बखानै।

परन्तु मेरा विचार है कि इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा ही है, क्योंकि ये ब्रजभाषा के ठेठ शब्दों का प्रयोग करते नहीं देखे जाते। इसी प्रकार ये स्थान स्थान पर ऐसे शब्द लिख जाते हैं जो ब्रजभाषा के नियमानुकूल नहीं कहे जा सकते। निम्नलिखित सवैया को देखिये:—

हमसों हित के कित को नितही
इत बीच वियोगहिं पोइ चले।
सु अखैबट बीज लौं फैलि पर्यो
बनमाली कहाँ धौं समोइ चले।
घन आनँद छांह बितान तन्यो
हमैं ताप के आतप खोइ चले।
कबहूं तेहि मूल तौ बैठिये आय
सुजान जो बीजहिं बोइ चले।

इस सवैयामें 'पोइ', 'समोइ', 'खोइ', 'बोइ', के 'इ' के स्थानपर ब्रजभाषा के नियमानुसार यकार होना चहिये। परन्तु इन्होंने अवधी के नियमानुसार 'इ' लिखा। इन्हीं को नहीं ब्रजभाषा के अन्य कवियों और महाकवियों को भी इस प्रकार का प्रयोग करते देखा जाता है। कविवर सूरदास जी की रचनाओं में भी ऐसे प्रयोग अधिकता से मिलते हैं। यदि कहा जाय कि प्राचीन ब्रजभाषा में ऐसे प्रयोग होते थे तो यही मानना पड़ेगा कि ब्रजभाषा में दोनों प्रकार के प्रयोग होते आये हैं। ऐसी अवस्था में यह नियम स्वीकृत नहीं हो सकता कि ऐसे स्थलों पर अवधी में जहाँ 'इ' का