पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४३८

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१— गुरनि बतायो राधा मोहन हूँ गायो
सदा सुखद सुहायो वृन्दावन गाढ़े गहुरे।
अद्भुत अभूत महि मंडन परे ते पर
जीवन को लाहु हाहा क्यों न ताहि लहुरे।
आनँद को धन छायो रहत निरंतर ही
सरस सुदेय सों पपीहा पन बहुरे।
जमुना के तार केलि कोलाहल भोर
ऐसे पावन पुलिन पर पतित परि रहुरे।
२— अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ
नेको मयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ
झिझकैं कपटी जेनिसाँक नहीं।
घन आनँद प्यारे सुजान सुनो
इत एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला
मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।
३— पर कारज देह को धारे फिरौ
परजन्य यथारथ ह्वौ दरसौ।
निधिनीर सुधा के समान करौ
सब ही बिधि सजनता सरसौ।
घन आनँद जीवन दायक हौ
कछ मेरीयौ पीर हिये परसौ।
कबहूं वा बिसासो सुजान के
आँगनमो अँसुआन को लै बरसौ