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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५६०

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सम्भव-सार' यद्यपि छोटी पुस्तक है, परंतु उसकी खड़ी बोली की कविता बहुत परिमार्जित और सुंदर है। उसका प्रभाव भी उस काल की खड़ी बोली की कविता पर बहुत कुछ पड़ा। पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी संस्कृत के विद्वान् और उसके प्रेमी हैं। इस लिये उनके गद्य और पद्य दोनों की भाषा संस्कृत बहुला है। गद्य तो गद्य उनके पद्य में भी संस्कृत के कर्कश शब्द आ गये हैं। जिसका प्रभाव उनके शिष्यों की रचना पर भी पड़ा है। आदिम अवस्थाओं में ऐसा होना स्वाभाविक था। सुधार विशेषकर कविता में, यथाक्रम ही होता है।

जो भाषा साहित्यिक बन कर बोलचाल की भाषा से अधिक दूर पड़ जाती है, काल पा कर वह साहित्य ही में रह जाती है और उसका स्थान धीरे धीरे एक नया भाषा ग्रहण करने लगती है। इस दृष्टि से और इस विचार से भी कि उर्दू और हिन्दी भाषा को रचनायें अधिकतर पास पास हो जायें, कुछ मननशील विद्वानों का यह विचार हुआ कि खड़ी बोलचाल की कविता की भाषा जहाँ तक हो बोलचाल के निकट हो और उसमें अधिकतर संस्कृत के तत्सम शब्द न भी तो अच्छा। संस्कृत शब्दमयी रचना को सर्व साधारण समझ भी नहीं सकते। इस लिये भी बोलचाल की सरल भाषा में कविता रचने की आवश्यकता होती है। यह मैं स्वीकार करूंगा कि अन्य प्रान्तों से सम्बन्ध स्थापित करने के लिये यह आवश्यक है कि जैसे गद्य संस्कृत भाषामय होता है वैसे ही पद्य भी हो क्योंकि संस्कृत के शब्द समान रूप से सब प्रान्तों में समझे जाते हैं। मेरा 'प्रिय-प्रवास' इसी विचार से अधिकतर संस्कृत गर्भित है। में इसका विरोध नहीं करता। आवश्यकतानुसार कुछ ऐसे ग्रन्थ भो लिखे जाँय। परन्तु अधिकतर ऐसे ही ग्रन्थों की आवश्यकता है जिनकी भाषा बोलचाल की हो जिससे अधिक हिन्दी भाषा-भाषी जनता को लाभ पहुँच सके। अभी इधर ध्यान बहुत कम गया है, उस समय भी ऐसी भाषा लिखने वालों को लोग कड़ी दृष्टि से देखते थे और समझते थे कि ऐसा कर के वह हिन्दी भाषा के उच्च आदर्श को अधः पतित कर रहा है। सन् १९०० ईस्वी में नागरी प्रचारिणी सभा का भवन-प्रवेशोत्सव था। उस समय मैंने एवं