पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५४८)


पर अमावस के सितारों की तरह।
लोग जो इसमें चमकते हैं कहीं।

ये पद्य विलकुल बोलचाल के हैं। इनमें कुछ शब्द फ़ारसी के भी आ गये हैं। इस लिये प्रेमघन जी ने इनको हिन्दी का पद्य नहीं माना। इतना ही नहीं मुझ से ही तर्क-वितर्क कर के वे शान्त नहीं हुये, उसकी चर्चा उन्होंने उक्त बाबू साहब से भी की, जिससे पाया जाता है कि उस समय हिन्दी के ऐसे लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वान् भी हिन्दीको खड़ी बोली रचनाके विषय में क्या विचार रखते थे। पंडित जी का तर्क यह था कि जो हिन्दी छन्दों में कविता को जावे और संस्कृत तत्सम शब्द जिसमें अधिक आवे वही खड़ी बोली की हिन्दी कविता मानी जा सकती है अन्यथा वह उर्दू है। मेरी रचना में हिन्दी के तद्भव शब्द अधिक आये हैं, और कहीं कहीं फ़ारसी के शब्द भी आ गये हैं, संस्कृत के तत्सम शब्द कम हैं, इसीलिये वे उसको हिन्दी की रचना मानने के लिये तैयार नहीं थे। उस समय हिन्दी की खड़ी बोली कविता के लिये अधिकतर लोगों के यही विचार थे। अब भी कुछ लोगों के येही विचार हैं। मैं इस विचार से सहमत नहीं हूं। तद्भव शब्दों में लिखी गयी शिष्ट बोलचाल की हिन्दी ही वास्तव में खड़ी हिन्दी भाषा की रचना कही जा सकती है और ऐसी ही रचना सर्व साधारण के लिये विशेष उपकारक हो सकती है। इस तर्क का कोई अर्थ नहीं कि यदि 'अइली गइली' का प्रयोग किया जावे, और ग्रामीण भाषा लिखी जावे तब तो वह हिन्दी है और यदि शिष्ट बोलचाल की भाषा के आधार से तद्भव शब्दों में हिन्दी भाषा की कविता लिखी जावे तो वह उर्दू है। यह बिलकुल अयथा विचार है। कुछ मुसल्मान विद्वानों का विचार भी ऐसा ही है। वे 'ज़फ़र' और 'नज़ीर' की निम्न लिखित रचनाओं को उर्दू की कहते हैं, हिन्दी की नहीं :—

१— यों ही बहुतदिन गुड़िया मैं खेली।
कभी अकेली कभी दुकेली।
जिससे कहा चल तमाशा दिखला।
उसने उठा कर गोदी में ले ली।