सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(६२७)

इनका कुछ विशेष परिचय नहीं प्राप्त है। इन्हें कुछ लोग सत्रहवीं शताब्दी में उत्पन्न बतलाते हैं। इनकी भाषा का नमूना देखिये:—

"तब इतने बीच कस्यप की स्त्री दिति कस्यप के आगे ठाढ़ी भई ठाढ़ै ह्वै कर कहनि लगो कि अहो प्राणेश्वर कस्यप देषतु अदितिहिँ आदि दै जितीक मेरी सब सपत्नी हैं सु तिन सपत्नीन के पुत्रन कौ मुषु देषतु मेरे परमु संताप होतु है तब यह सुनि कस्यप यह विचारी कि स्त्री की‌ संगति अर्थु, धर्मु काम मोछ होतु है। अरु स्त्री की संगति ग्रहस्थ और तिनिहूँ आश्रमनि की पालना करतु है। अरु अपुन संसार समुद्र के पार होतु है।"

 

 

चौथा प्रकरण
विस्तार—काल

उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य को सबल बनाने के लिये खूब उद्योग किया गया। इसके पूर्वाद्ध में उसे विभिन्न मार्गों से विस्तार प्राप्त हुआ और उत्तरार्द्ध में वह समुन्नति को ओर अग्रसर हुआ। इसीसे हमने पूर्वार्द्ध को विस्तारकाल माना है। और उत्तरार्द्ध को उन्नति काल॥

मैं यह कह चुका हूं कि सत्रहवीं ओर अठारहवीं शताब्दी में टीकाकारों ने हिन्दी गद्य मैदान को उत्सन्न हो जाने से बहुत कुछ बचाया। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में भी उनकी एक श्रेणी कार्य्य करती दृष्टिगोचर होती है। इन टीकाकारों में जानकी प्रसाद और सरदार कवि मुख्य थे। जानकी प्रसाद को भाषा का एक नमूना देखिये:—

१—बालक जैसे पग से दाबि पङ्क कहे कीच को पेलि के पताल को पठावत है तेस ये (गनेश जो) कलुप जे पाप हैं तिनका पठावत हैं। इहाँ गजराज को त्याग करि बालक सम यासों कह्यो, पद्मिनी पत्रादि