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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६४४

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एक शब्द इस अवतरण में नहीं दिखायी पड़ता। इसका कारण धार्म्मिक संस्कार था जो फ़ारसी शब्दों का समावेश करने के अनुकूल नहीं था। मुन्शी सदासुख लाल ने एक ओर तो कथा-वार्त्ता की पूर्व शैली के अनुसार कुछ प्रचलित शब्दों और वाक्यों को ग्रहण किया, दूसरी ओर खड़ी बोली‌ की क्रियाओं, सर्वनामों और संज्ञा शब्दों को इस संयोग ने सोने में सुहागे का काम किया।

सैयद इन्शा अल्ला खां के पूर्वज समरकंद से भारत में आये थे। वे पहले तो मुग़ल दरबार के आश्रित हो कर रहे। किंतु जब मुग़ल साम्राज्य का अन्त हो गया तब इन्शा के पिता दिल्ली से मुर्शिदाबाद चले गये। इन्शा की शिक्षा बहुत अच्छी हुई। अल्प वय में वे फ़ारसी और उर्दू में अच्छी‌ कविता करने लगे थे। इनकी विलक्षण प्रतिभा ने हिन्दी गद्य में भी अपनी विलक्षणता दिखलायी। ब्रजभाषा के गद्य में कथा-वार्ता का एक देशीय विकाश हुआ था। अब यदि खड़ी बोली में मुन्शी सदासुख लाल ने धार्मिक कथा का वर्णन किया तो इन्शा अल्ला खां ने बहुत ही रोचक और सरल तथा महावरेदार ठेठ भाषा में प्रेम कहानी लिखी जिसकी लोक प्रियता का‌ क्षेत्र स्वभावतः बहुत चौड़ा होता है, और जो अधिकाधिक प्रचलित होकर गद्य के स्वरूप को निखारने में बहुत बड़ा काम करती है। इन्शा की भाषा के दो नमूने देखिये:—

१—एक दिन बेठे बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिये कि जिसमें हिन्दवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले तब जाके मेरा जी फूल को कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो‌...................एक कोई बड़े पढ़े-लिखे पुराने और लगे हिन्दीपन भी न निकले और‌ अच्छों से अच्छे-आपस में का त्यों वही सब डौल रहे और‌ छाँव किसी की न धुराने, डाँग, बूढ़े घाग यह खटरांग लाये................... और लगे कहने यह बात होती दिखायी नहीं देती। हिन्दीपन भी न निकले और भाषापन भी न हो। बस जैसे भले लोग अच्छों से अच्छे—आपस में बोलते चालते हैं ज्यों का त्यों वहीं सब डौल रहे और‌ छाँव किसी की न पड़े, यह नहीं होने का।