पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६५६

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वाली नहीं थी। हिन्दी-गद्य के पुराने संस्कार वास्तव में सदा के लिये मिट नहीं गये थे, केवल प्रतिकूल परिस्थिति के कारण वे दबे पड़े थे। राजा लक्ष्मण सिंह की सरस लेखनी का अवलम्वन पा कर वे फिर सामने आ ग़ये उन्होंने अपनी भाषा-विषयक नीति निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त कर दी:-

"हिन्दी और उर्दू दो बोली न्यारी न्यारी हैं। हिन्दी इस देश के हिन्दू और उर्दू यहां के मुसल्मानों और फ़ारसी पढ़े हुये हिन्दुओं की बोल-चाल है। हिन्दी में संस्कृत के शब्द बहुत आते हैं और उर्दू में अ़रबी और फ़ारसी के। किन्तु कुछ आवश्यक नहीं है कि अ़रबी फ़ारसी शब्दों के बिना उर्दू न बोली जाय और न हम उस भाषा को हिन्दी कहते हैं जिसमें अ़रबी फ़ारसी के शब्द भरे हों।"

अपनी इस मनोवृत्ति के साथ कार्य क्षेत्र में अग्रसर होकर राजा लक्ष्मण सिंह ने हिन्दी का असीम उपकार किया। वास्तव में यदि गजा शिव प्रसाद ने हिन्दी गद्य के अस्थिपञ्जणवशिष्ट शगेर में श्वास का आना जाना सुरक्षित रक्खा तो राजा लक्ष्मण सिंह ने उसके शगेर में अल्पाधिकमात्रा में स्वास्थ्य का संचार किया और उसे नव जीवन दिया। इनकी भाषा के दो नमूने आप देखें :—

१—"रास छोड़ते ही घोड़े सिमट कर कैसे झपटे कि खुरों को धूल भी साथ न लगी। केश खड़े कर के और कनौती उठा कर घोड़े दौड़े क्या हैं, उड़ आये हैं। जो वस्तु पहले दूर होने के कारण छोटी दिखायी देती थी सो अब बड़ी जान पड़ती है।"

२—तुम्हारे मधुर वचनों के विश्वास में आकर मेरा जी यह पूछने को चाहता है कि तुम किस राजवंश के भूषण हो और किस देश की प्रजा को बिरह में ब्याकुल छोड़ कर पधारे हो। क्या कारन है जिससे तुमने अपने कोमल गात को कठिन तपोवन में आकर पीड़ित किया है।

इन अवतरणों की भाषा से राजा शिव प्रसाद जी की भाषा से तुलना कीजिये। यदि एक में आप को उर्दू का स्पष्ट स्वरूप दिखायी पड़ेगा