सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/६६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(६४७)

के विकास में लेखक की अपेक्षा जनता का सहयोग कम प्रभावशाली नहीं होता। हम जो कुछ लिखते हैं उसका यही उद्देश्य है कि उसे लोग पढ़ें और. उचित मात्रा में उससे प्रभावित हो। जब हम शैली-बिशेष की उपयोगिता और ग्राम्यता पर विशेष बल देते हैं, तब हमारा तात्पर्य इससे भिन्न अन्य कुछ नहीं हो सकता कि उससे लेखक और पाठक का मानसिक सम्बन्ध स्थापन होने में बहुत अधिक सरलता और सुगमता की संभावना है। राजा शिवप्रसाद ने फारसी शब्दों से लदी हुई 'आम फहम' और'खास पसंद' भाषा के लिये जब 'ज़ोरदार ,'वकालत' की थी तब इसी व्यापक सिद्धान्त का आश्रय उन्हें लेना पड़ा था। उनका ध्यान विशेष रूप से उन शिक्षित हिन्दू पाठको की ओर था जिनके हिन्दी-प्रेम की अधिक से अधिक सीमा यह थी कि वे देवनागर अक्षरों में उर्दू भाषा को पढ़ और समझ लें । किन्तु जब इसी पाठक-मण्डली के धार्मिक संस्कारों की सहानुभूति की आवश्यकता लेखक को प्रतीत हुई तब संस्कृत के तत्सम शब्दों ही की ओर उसे झुकना पड़ा। मैं इस स्थान पर यह कथन करता हुआ इस बात को भी नहीं भूल रहा हूं कि धार्मिक विषयों के स्पष्टी करण, तथा तत्सम्बन्धी तक-वितर्क में संस्कृत शब्दों की यथेस्ट मात्रामें आवश्यकता होती है। किन्तु साथ ही यह भी मेरा मत है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती के के लेखों मे संस्कृत के तत्सम शब्दों का जो बहुत अधिकता से प्रयोग हुआ है. उसका एक मात्र कारण यह अनिवार्य आवश्यकता ही नहीं थी. बल्कि जनता को वह रुचि भी थी जो संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोग में एक विशप धार्मिक संस्कार का अनुभव करती थी। अतएव लेखक और पाठकमण्डली दोनों के सहयोग से हिन्दी भाषा का बहुत कुछ परिष्कार और परिमार्जन हो चला जिसका स्पष्ट परिचय भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की भाषा में दिखायी पड़ा। जनता की रुचि किस भाषा की ओर थी, यह भारतेन्दु द्वारा 'सञ्चालित कविवचनमुधा' नामक मासिक पत्र के प्रति उसके विशेष अनुराग से लक्षित हो गया। भारतेन्दु ने भाषा के सम्बन्ध में एक ऐसी नोनि ग्रहण की जो किसी विशेष पक्ष की ओर झुकी नहीं थी बल्कि समस्त पक्षों का समुचित समन्वय उपस्थित