पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/१०६

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रौद्र और बीभत्स रसों के लिये कठोर रचना की आवश्यकता है; और स्पष्टार्थक रचना का होना तो सभी रसों में अपेक्षित है। जब यह निर्णय हो गया, तब यह खोज हुई कि इन रचनाओं से युक्त उन उन रसों के आस्वादन से अंतःकरण पर क्या प्रभाव होता है? अनुभव से ज्ञात हुआ कि कोमल रचना से युक्त रसों के आस्वादन से चित्त पिघलता है, कठोर रचना से युक्त रसों के आस्वादन से चित्त उद्दीप्त होता है—उसमें जोश आ जाता है, और स्पष्टार्थक रचना से युक्त रसों के आस्वादन से चित्त विकसित होता है। थोड़ा और सोचने पर यह भी पता लगा कि यह काम वास्तव में रसों से होता है, रचनाओं से नहीं; क्योकि यदि मधुर रचना से ही चित्त द्रुत होता हो, तो वैसी रचना से वीर आदि रसों मे चित्त की द्रुति क्यों नहीं होती। अतः यह निर्णय हुआ कि गुण रचना से विलक्षण वस्तु हैं और उनका रसों के साथ संबंध है, रचनाओं के साथ नहीं। अंततोगत्वा काव्यप्रकाशकार ने यह निर्णय किया कि शृंगार, करुण और शांत रस में जो एक प्रकार की आह्वादकता रहती है, जिसके कारण चित्त द्रुत हो जाता है, उसका नाम माधुर्य है; वीर, रौद्र और बीभत्स रसों में जो उद्दीपकता रहती है, जिसके कारण चित्त जल उठता है, उसका नाम ओज है; और जो सूखे[१] ईंधन


  1. यह दृष्टांत ओजस्वी रसों के लिये है।