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श्रीहरिः
हिंदी-रसगंगाधर
प्रथम भाग
(प्रथम आनन)
निमग्नेन क्लेशैर्मननजलधेरन्तरुदरं
मयोन्नीतो लोके ललितरसगङ्गाधरमणिः।
हरन्नन्तर्ध्वान्तं हृदयमधिरुढो गुणवता-
मलङ्कारान् सर्वानपि गलितगर्वान् रचयतु॥
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अति-कलेस तें मनन-जलधि के उदर-मांझ दै गोत घनी।
मैं जग में कीन्ही प्रकटित यह "रसगंगाधर" ललित-मनी॥
सो हरि अंधकार अतर को हिय शोभित ह्वै गुनि-गन के।
सकल अलंकारन के, करि दै गलित, गरब उत्तमपन के॥
पुरुषोत्तम शर्मा चतुर्वेदी