सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी रस गंगाधर.djvu/२१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ९८ )

मलय-अनिल अरु गुरु मरल, तिय-कुन्तल अहि-देह।
सुपच रु विधि को भेद तजि मम थिति भई अछेह॥

मलयाचल के वायु और विष मे, स्त्रियों के सिंदूर-पूरित केश और मर्प के शरीर में एवं चण्डाल तथा ब्रह्मा मे भेद-भावरहित मेरी स्थिति, परमात्मा मे, हो गई है।

यहाँ सब जगत् आलंबन है, सब व्यक्तियों और वस्तुओं मे समानता अनुभाव है और मति आदि संचारी भाव हैं। यद्यपि पूर्वार्ध मे पहले उत्तम (मलय-पवन आदि) का वर्णन और पीछे अधम (विष आदि) का वर्णन है; पर उत्तरार्ध में पहले अधम (श्वपच) का और पीछे उत्तम (ब्रह्मा) का वर्णन है, अतः 'प्रक्रम-भंगा दोष है अर्थात् जिस क्रम से प्रारंभ किया गया, उसी क्रम का समाप्तिपर्यंत निर्वाह नहीं हो सका; तथापि "कहनेवाला, ब्रह्मरूप होने के कारण, उत्तमअधम के ज्ञान से रहित हो गया है। यह वात प्रकाशित करने के लिये 'क्रमभंग' गुण ही है-अर्थात् इससे वक्ता की उत्तमाधम-ज्ञान-शून्यता प्रकाशित होती है, जो कि ब्रह्मज्ञानी के लिये आवश्यक है। सो यह दोष नहीं, गुण है। यह तो हुआ शांतरस का उदाहरण; अव उसका प्रत्युदाहरण भी सुनिए-

सुरस्रोतविन्याः पुलिनमधितिष्ठन्नयनयो-
र्विधायान्तर्मुद्रामथ सपदि विद्राव्य विषयान्।