भी तारतम्य (कमी-बेशी) नहीं होता-ये सब समान ही मधुर हैं। इनमे से पहले और तीसरे मत मे "करुणे विप्रलम्भे तच्छांत चाऽतिशयान्वितम्" यह प्राचीन प्राचार्यों का सूत्र अनुकूल है; क्योंकि उसके आगे के सूत्र मे जो 'क्रमेण' पद है, उसको पहले सूत्र मे खीचने और न खींचने से उसकी दो व्याख्याएँ हो सकती हैं। रहा बीच का मत, सो उसके विषय मे यह कहा जा सकता है कि करुण और शांतरसों की अपेक्षा विप्रलंभ श्रृंगार के माधुर्य की अधिकता का यदि स हृदय पुरुषों को अनुभव होता हो, तो उसे भी प्रमाण मान लेना चाहिए। वीर, बीभत्स और रौद्र-रसों मे पहले की अपेक्षा पिछले मे अधिक ओज रहता है; क्योंकि इनमे से प्रत्येक पिछला रस चित्त को अधिक दीप्त करनेवाला--अर्थात् दिली जोश बढानेवाला है। अद्भुत, हास्य और भयानक रसों के विषय मे कुछ विद्वानों का मत है कि इनमे माधुर्य और ओज दोनो गुण रहते हैं और दूसरे कहते हैं कि इनमे केवल प्रसाद गुण ही रहता है। हाँ, यह बात सिद्ध है कि प्रसाद-गुण सब रस और सब रचनाओं में रहता है-वह किसी विशेष रस से ही संबंध रखनेवाला नहीं है।
इन गुणो के द्वारा, क्रम से, दुति (पिघलना), दीप्ति (जोश) और विकास (खिल जाना) ये चित्त की वृत्तियों उभारी जाती हैं, अर्थात् उन-उन गुणों से युक्त रसों के आस्वा-