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रसरूप मानना सर्वथा भ्रम है। इसका कारण यह था कि जिस तरह व्याघ्र आदि प्राणी भयानक रस के विभाव होते हैं, वैसे ही वीर, अद्भुत और रौद्र रस के भी हो सकते हैं; क्योंकि वे जिस प्रकार भय के आलबन होते हैं, उसी प्रकार उत्साह, आश्चर्य और क्रोध के भी आलंबन हो सकते हैं। इसी प्रकार अश्रुपात आदि भी जैसे शृंगार-रस के अनुभाव होते हैं, वैसे ही करुण और भयानक रस के भी हो सकते हैं; क्योकि ये जिस तरह प्रेम के कारण उत्पन्न होते हैं, उसी तरह शोक और भय के कारण भी उत्पन्न हो सकते हैं। व्यमिचारी भावों की भी यही दशा है; क्योंकि चिंता आदि चित्तवृत्तियाँ जिस तरह शृंगार-रस के स्थायी भाव प्रेम को पुष्ट करती हैं, उसी तरह वीर, करुण और भयानक रसों मे यथाउत्साह, शोक और भय को भी पुष्ट कर सकती हैं। अब यदि इन तीनों में से किसी-एक को रस माना जाय, तो जो प्रेम आदि एक ही चित्तवृत्ति की प्रत्येक नाट्य के पूरे भाग में स्थिर रूप से प्रतीति होती है, वह न बन सके। अतः वे लोग यह मानने लगे—"विभावादयस्रयः समुदिता रसाः"। अर्थात् विभावादिक तीनों इकट्ठे रसरूप हैं, उनमें से कोई एक नहीं। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में सातवाँ है।
६—स्थायी भावों का ज्ञान हो जाने और उसके अनुसार इसका विभाग स्थिर हो जाने के अनंतर विद्वानों ने उस पर फिर विचार किया और उन्हें पूर्वोक्त मत भी न जँचा। उनको