पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/१०६

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. ईश्वर “जन्मादास्य यतः।” (वेदान्त सू० १।१२) “त्यता कर्मफलासङ्ग नित्यप्तो निराश्रयः । जिससे जन्मादि ( उत्पत्ति, स्थिति, भङ्ग) होते | कर्मण्यभिप्रवृत्तेऽपि नेव किञ्चित् करोति सः ॥ २० हैं, वही ब्रह्म है। निराधौर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । "आनन्दमयोऽभ्यासात्।” (१।१।१२) शारीर केवल कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ॥ २१ यदृच्छा लाभसन्तुष्टो इन्दातीतो विमत्सरः । परमात्म विषयमें आनन्द शब्दका बहु उच्चारण समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निवध्यते ॥ २२ सुनते हैं। (इसी हेतु श्रुति-उक्त आनन्दमय परमात्मासे गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः । भिन्न नहीं है) यज्ञायाचरतः कर्म समग्र प्रविलीयते ॥ २३ "नतरोऽनुपपत्तेः।” ( २०१॥१६) ब्रह्मार्पण ब्रह्महविद्व मानौ ब्रह्मणाहुत' । क्योंकि आनन्दमयमें जीवत्व नहीं है (पर ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥" २४ ( गौता ४ अध्याय) मात्मा और जीव भिन्न है) 'जो कर्मफलको आसक्ति छोड़ चिरदृप्त और “गतिसामान्यात्।” (१।१।१०) सबके श्राश्रयसे दूर रहता है, वह सम्यक प्रवृत्त होते समानरूपसे चेतनमें ही जगत्को कारणता प्रतीत | भी कोई कर्म नहीं करता। जो कामना और होती है। सकल परिग्रह छोड़कर अपने आत्मा तथा मनको "श्रुतत्वाच्च ।” (१।१।१२) विशुद्ध रखता है, वह केवल शरीर द्वारा कर्मानु- श्रुतिके मतमें सर्वज्ञ ईश्वर ही जगत्का कारण है। ष्ठान करते भी पापभोगी नहीं बनता। जो यदृच्छा "अनुपपत्तेस्तु न शारीरः।” (१।२।३) लाभसे सन्तुष्ट, शीतउष्ण एवं सुखदुःखादि हन्दसहिष्णु, ब्रह्ममें जीवका धर्म मिल सकता है, किन्तु जीवमें शत्र विहीन और सिद्धि तथा असिधिको समान मानने- ब्रह्मका धर्म नहीं रहता। वाला है, वह कर्म करते भी किसी बन्धनमें नहीं "पगत्तु तच्छते।” (२२४२) पड़ता। जो कामना छोड़कर, रागादिसे मुक्त हो क्या कर्ट व और क्या भोक्त व समस्त हो पर ज्ञानको चित्तमें अवस्थान देता है उसके यज्ञार्थ मात्माके अधीन हैं। परमात्मा और वेदान्त देखो। कर्मानुष्ठान करनेसे सकल कर्म विलुप्त हो जाते हैं। प्रधानके जगत्कट त्वको छोड़, वेदान्तका अपरापर मुक स्रवादि सकल पात्र ब्रह्म, हवनीय घृतादि ब्रह्म, मत अनेकांशमें सांख्यसे मिल जाता है। किन्तु इतने अग्नि ब्रह्म और होम करनेवाला भी ब्रह्म ही है। दिनोंसे कर्म एवं ज्ञानकाण्ड्पर जो झगड़ा था और कर्मस्वरूप ब्रह्म जिसका समाधि लगता, उसीको ब्रह्म दर्शनकारों में अपने-अपने विभिन्न मतपर जो विवाद मिलता है।' बढ़ा था, श्रीकृष्णने जन्म ले उसको साधारण का सन्देह इस प्रकार भगवान्ने कर्मयोगीको ईश्वरतत्त्वका हटाकर मिटा दिया और सर्वशास्त्र-सङ्गत विशुद्ध ईश्वर उपदेश दे पीछे प्रकाश किया है,- तत्त्व देखा दिया। श्रीकृष्ण-प्रोक्त गीता, वेद उपनिषद "आरुरुक्षोर्मुनयोग' कर्म कारणमुच्यते । और दर्शनशास्त्रके एकत्र मिलनको परिचायक है। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥” (गोता ६।३) वास्तवमें भगवद्गीताके तुल्य सार्वजनिक उपदेश जो मुनि ज्ञानयोग पर आरोहण करना चाहता शास्त्र आजतक कहीं देख नहीं पड़ता। गोतामें | है, कमै ही उसका सहाय बनता है। अनन्तर भगवानने सांख्यके 'प्रधान', योगके 'ईश्वर', वैशेषिकके | योगपर आरोहण करनेवालेको कर्मत्यागका सहारा 'परमाण', न्यायके कारण और मीमांसाके 'ब्रह्म'को | लेना पड़ता है। ईखर मान लिया है। उन्होंने लोगोंको समझाया- इसी प्रकार कर्म और ज्ञानकाण्ड का मिलन हुआ वेटोल कर्मकाण्ड और उपनिषदमोल ज्ञानकाण्ड है। गोतामें व्यक्त किया-है-एकके प्रभावमें दसरा दोनोंसे ईश्वर वा मोच मिला जुला है। उनके मतमें- हो नहीं सकता।: :.. . ____Vol III. 27