पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/१२०

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ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ११६ तविद्य पण्डितों और सम्भान्त व्यक्तियों को बहु-। वर्तमान विशुद्ध बंगला भाषाने जो आकार बनाये, विवाह रोकने के लिये उभारा था। इस कार्य में कृष्ण उनके आदि प्रवर्तक विद्यासागर हो हैं। उक्त नगरके राजा वौशचन्द्र ने विद्यासागरको यथेष्ट साहाय्य विषयको विहान् मात्र मानते ओर उसी प्रणालो दिया। किन्तु सिपाही-विद्रोह लग जानेसे सरकार को पकड़कर अनेक वर्तमान बङ्गाला-लेखक नाना बहुविवाह रोकनेका कानून बना न सकी थी। छन्दों और भावों में अपनी लेखनी चलाते हैं। १८५८ ई में नाना कारणों से विरक्त हो इन्होंने विद्यासागर केवल समाज-संस्कार और बंगला कालेजकी अध्यक्षता और स्कूल इन्सपेकरीको छोड़ भाषाके उन्नतिकल्प में ही प्रसिद्ध नहीं। इनकी दिया। कुछ दिन पौछे विद्यासागरने अपने तत्त्वाव परोपकारिता और दानशीलताको भी वङ्ग-देशक महा- धानमें निज व्ययसे 'मेट्रोपलिटन' नामक अंगरेजी धनवान् से लेकर दोन दरिद्र पर्यन्त सकल हो जानते विद्यालय खोला था। किन्तु विद्यालयके कटपक्ष थे । विद्यासागर देशीय विपन्न, दरिद्र और विधवा भोंके साहब मिल-जुल कर कहने लगे, बङ्गालो अंगरेजी लिये प्रति मास अनेक रुपये दे देते। किन्तु इन्होंने कालेज चलानेको क्षमता नहीं रखते। सिवा अगरे प्रकाश्य रूपसे नहों, गुप्तभावसे ही दानकार्य सम्पन जो के दूसरेसे कालेजका प्रबन्ध होना असम्भव है। किया था । धनाढ्य न होते भी १८६५ ई०के दारुण इन्हों ने उनकी बात न मान निज विद्यालयमें बङ्गालि दुर्भिक्ष समय विद्यासागरने प्रायः छः मास पर्यन्त यो के मध्य ही सर्वप्रथम कालेज क्लास खोला। इसी वीरसिंहमें प्रत्यह सहस्रां व्यक्तियों को अब और कालेजपर छोटेलाट ई० सी० बेलौसे अनेक कथा-वार्ता वस्त्रहीन दरिद्रोंको प्रायः दो हजार रुपयेका वस्त्र हुयी थी। ई०सी० बलौने कहा, “विद्यासागर ! किस | दिया। इन्होंने यह दानशीलता और परदुःख- प्रकार आप निज कालेज चलायेंगे? अंगरेजों के कातरता अपनी मातासे सीखी थी। प्रवादानुसार साहाय्य भिन्न अंगरेजी कालेज चल नहीं सकता। विद्यासागरको माता अतिशय दानशीला थौं। विद्यासागरने उत्तर दिया,-"अपने छात्रोंको अंगरेजी किसीका दुःख देख उनका हृदय फट जाता और पढ़ा न सकते भी उन्हें परीक्षा पास करा देना निश्चित उसके दूर करनेका प्रयास उठाना पड़ता। उन्हों है।" पीछे वही हो गया। आजकल इनके स्थापित सदाशय जननीके नाना गुण इनमें भी आ गये एक कालेज और पांच विद्यालयोमें भली भांति पठन थे। विद्यासागरके कथनानुसार-ट्ररिद्रोंको पोड़ा पाठन होता है। कितनोंने देखी और उनके हृदयको व्यथा कितनोंने ___ विद्यासागरसे पूर्व बङ्गलाभाषा सरल, सुगम और सुनी है। वास्तविक दरिद्रका दैन्य और विधवाका इस समय-जैसी परिशुद्ध न थी। ये पाठ्यपुस्तक दुःख देखनेपर नयन जलसे इनका वक्षस्थल डब इस उद्देश्यसे बनाने लगे, जिसमें सब कोई सहज हो जाता था। दुःखीका दुःख किसीसे कहते समय भी बंगला भाषा सोख सके। विद्यासागरके बनाये ग्रन्थ अश्रु बहने लगते। इस चरित्रको कोई अतिरञ्जित - की तालिका नीचे लिखी है,- न समझे। यह चाक्षुष-प्रत्यक्ष है। मुक्तकण्ठसे वैतालपञ्चविंशति, बङ्गालका इतिहास, जीवन कहनेपर ऐसे हृदयवान पुरुष वदेशमें प्रतिविरल - चरित, बोधोदय, उपक्रमणिका व्याकरण, ऋजुपाठ हैं। विद्यासागर सामान्य मेषपालकसे लेकर बहुत (तीन भाग ), शकुन्तला, विधवाविवाह, वर्ण परिचय, | बड़े राजातक सकलके हो बन्धु थे। अपनी विपद कथामाला, संस्कृतप्रस्ताव, चरितावलो, महाभारतको | बतानेपर ये अर्थ, परिश्रम, परामर्श, दूसरेके साहाय्य 'साकणिका. मौताका वनवास. व्याकरणकौमदी. अथवा किसी न किसी उपायसे यथासाध्य लोगों का "पाख्यानमञ्जरो, भान्ति विस्वास और बहुविवाह उपकार कर देवे।. . . रहित होना उचित है या नहीं। .... वैद्यनाथ के निकट कर्माटांड नामक एक स्थान