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पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/२६७

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उद्भिविद्या पत्र होते और प्रत्येक पत्र एक-एक विन्ट जल देता| nerved) और कोई दलको मध्यरेखा समान्तर है। इसीप्रकार असंख्य वृक्षोंसे अधिक परिमाणमें शिरायुक्त ( Parallel-veined ) होती है। पत्र दो जल गिरता है। जल यदि पत्रसे निकल वायुमण्डलमें | प्रकारके होते हैं-सरल और यौगिक। जिस पत्र में पुनः न पहुंचता, तो अत्यन्त ग्रीष्मके समय वह सूखकर एकसे अधिक ग्रन्थि पड़े, वह यौगिक है। प्रकृन्तक नितान्त हो उष्णभाव धारण करता । पत्रको कर्णाकार ( Auriculate) आकृति लक्षित पत्रदल अर्थात् अन्तकिसलयको भूमि अग्रविन्दु होती है। सवन्तक पत्रको भूमि नानाप्रकार है। और हितल है। एक आकाश और अपर तल भूमिको कहों पानके पत्ते जैसी (Corvate ), कहों तीक्षा एवं ओर रहता है। दलके प्रान्तमागको धार कहते हैं। शुण्डावति, कहों ढाल किनारेदार, कहों दन्तुर, कहीं क्योंकि वह वृन्त वा दण्डपत्रके तलको धारण करता क्रकचावति (Lorate) किंवा एक-एक बड़ी मेहराबके है। उक्त दण्ड काण्ड के साथ संयोग-स्थलपर फैलकर | अन्तर्गत छोटी कोटो मेहराबके आकारमें खण्डित वृन्तकोष निकलता है। सवृन्तक पत्र में एक बहुत (Crenate) भूमि रहती है। पत्रको पशु का वा शिरा स्पष्ट रेखा दलके मध्य पड़ती है। उसका नाम | अपने छिन्न किनारासे जो सम्बन्ध रखतो, उसको बात मध्यरेखा है। वृन्तका दण्ड स्वयं दलके मध्य न सहज ही समझ नहीं पड़ती। छिट्रका परिणाम अधिक फैल प्रायः प्रवेशकालमें दो वा अधिक शिरामें बंट | रहनेसे पत्र कई खण्डमें बंट जाता है। उससमय देखने जाता है। इन रेखाओंका देध्य प्रायः समान और में आता है-पत्रका आकार पशु का वा शिरापर उतपत्तिस्थानसे सर्वत्र प्रसारित अथवा दलके मध्य निर्भर है। खण्डके पत्रको संख्या यदि हस्ताङ्गलिसे किचित सरल वा वक्र रहता है। प्रधान रेखा न्य न होती है, तो दिखण्डित विखण्डित इत्यादि उसके वा शिरासे बहु शाखा ये निकलती है और पोछे नाम एड़ते है। जिसमें दल इस प्रकार कट जाता है, वृद्धिगत हो पत्रदलको सकल दिशाओं में केशाकार | वह व्यवच्छिन्न ( Dissected ) पत्र कहलाता-जैसे सूक्ष्म सूक्ष्म प्रशाखा छोड़ती हैं। उनके परस्पर | जमीकन्दका पत्ता। यौगिक पत्रका दल सहजमें ही संयोगसे एक जाल बनता है। जिन उद्भिद के पत्र वृन्तदण्डसे पृथक् हो जाता है। किन्तु सूख जाने पर इस प्रकार जालविशिष्ट रहते, उनमें दो एकको मी सकल पत्रके दण्डका वृन्तदण्डसे छुटना कठिन है। छोड प्रायः सकल ही हिपणिक होते हैं। फिर उक्त | . पत्र, मुकुल और पुष्यविशिष्ट काण्ड खासके ग्रहण जालविहीन और पत्रदलके मध्य समानान्तर शिरा और पुनरुत्पादनका कार्य करता है। पुष्प हो पन- विशिष्ट पत्र एकपर्णिक हैं। जटिल शिरायुक्तकोजालाकृति | रुत्पादनका साधन है। पुष्यको कलिका प्रधान प्रधान (Reticulate) और अपर पत्रको प्रजालावति (Non-| विषयों में पत्रकलिका हो जैसी रहती है। जिस पत्रके reticulate) कहते हैं। उनमें अश्वस्थ, कटहल जाला कक्षमें पुष्यको कलिका निकलती है, उसकी संज्ञा कृति और बांस, अदरक, सवैजया प्रभृति प्रजालावति पुष्पोत्पादक पत्र ( Bract) है। पुष्योत्पादक हैं। वृन्तका दण्ड स्वयं पत्रके दलमें फैलता है। वह पत्र प्रायः हरा और अपर पत्र जैसा होता है। कभी दलको दो भागमें वांट दक्षिण और वाम पाख पर्यन्त | कभी वाह्य सौन्दर्य देखनेसे उसीके पुष्प होनेका भ्रम • शाखा छोड़ता है। उसको मध्यरेखा परके मध्यांश हो जाता है। पत्रको कलिकाके कक्षसे अन्य पत्र जैसी और पक्षाकार (Pinate) नाम पानेवाली होती। कलिका, फिर उसी स्थानसे अपरापर कलिका भी है। फिर वृन्तका दण्ड जलके पत्रमें घुसते ही घटकर पर्यायक्रमसे निकल सकती हैं। किन्तु पुष्यको कलि- दो वा अधिक शिरा निकालता है। उनमें कोई छत्रको कासे केवल एक पुष्प किंवा पुष्यस्तवकयुक्त शिखाका कमानीकी तरह प्रसारिताकार ( Radiate ), कोई उत्पादन होता है। प्रस्फुटित पत्रको कलिकाके मेर- कराकार ( Palmate ), कोई वक्रशिरायुक्त (Curve- | दण्डको शाखा कहते हैं। फिर पुष्पको कलिकामें