३१२ उपनयन पूर्वज्ञात वस्तु अलौकिक जैसा देख पड़ता है। ५ ज्ञान, "तस्य प्राप्तव्रतस्यायं कालः स्यादृदिगुणाधिकः । वैदव्रतातो ब्रात्यः स व्रात्यस्तोममर्हति ॥ २०॥ समझ। (गादावरी) दिजन्मनो विजातीनां मातुः स्यात् प्रथमं तयोः । उपनयन (स. क्लो०) उप-नी-ल्यूट । १ ब्राह्मण, क्षत्रिय हितीयं छन्दसां मातु इणाविधिवदगुरोः ॥ २१ ॥ और वैश्यक यज्ञसूत्रादि पहननेका प्रधान संस्कार। एवं द्विजातिमापन्नो विमुक्तो वान्यदोषतः । "योक्तकथा येन समीपं नौयते गुरोः । अतिमा तिपुराणानां भवेदध्ययनक्षमः ॥ २२ ॥" वाली वेदाय तद्योगावालस्योपनयं विदुः ।" (व्याससहिता १०) यह संस्कार तीन प्रकारका है-नित्य, काम्य और जो ब्राह्मण गर्भ से १५ वर्ष २ मास, क्षत्रिय २३ नैमित्तिक। अष्टम वर्ष पर्यन्त नित्य, पञ्चम वर्ष | वर्ष २ मास और वैश्य ३० वर्ष २ मास बीतने पर पर्यन्त काम्य और पापादिके अपनोदनाथ पुनः | वेदपाठ एवं उपनयन संस्काररहित रहता, उसे संस्कार नमित्तिक कहाता है। शास्त्र व्रात्य कहता है। ऐसा व्यक्ति व्रात्यस्तोमके “गर्माष्टमेऽब्द कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् । योगा अर्थात व्रात्यस्ताम करनेसे फिर गायत्रीका अधि- गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे दिशः ॥ कारी होता है। अमवर्चसकामस्य कार्य विप्रस्य पञ्चमे । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन जातिके टो राशी बालार्थिन: षष्ठे वैशास्य हार्थि नोऽष्टमैं ॥" जन्म हैं। प्रथम जन्म माताके गर्भ और द्वितीय जन्म गर्भके समयसे अष्टम वर्ष में ब्राह्मण, एकादश वर्ष में गुरुसे यथाविधि गायत्रोके ग्रहण द्वारा होता है। क्षत्रिय और हादश वर्ष में वैश्यका नित्य उपनयन इसीप्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य विजत्व पाते और संस्कार करना चाहिये। ब्रह्मतेजःकामी ब्राह्मणका अन्य दोषसे छट जाते हैं। फिर वे श्रुति, स्मति, पञ्चम, बलार्थी क्षत्रियका षष्ठ और धनकामी वैश्यका पुराणादि अध्ययनके उपयुक्त होते हैं। अष्टम वर्ष में काम्य उपनयन होता है। महर्षि नारदके मतसे- उक्त समय उपनयनका मुख्य और उससे अति- "ऋतौ वसन्त विप्राणां ग्रीष्मे राज्ञां शरद्यथो। रिक्त समय उपनयनका गौण काल कहलाता विशां मुख्यञ्च सर्वेषां हिजानाञ्चोपनायनम् ॥” है। गौणकाल दो प्रकार है-मध्यम आर अधम । द्विजातिके मध्य ब्राह्मणका वसन्त,क्षत्रियका ग्रीष्म,. ब्राह्मणका बादश, क्षत्रियका षोड़श और वैश्यका और वैश्यका शरद ऋतुमें उपनयनकाल प्रशस्त है। विंशति वर्ष पर्यन्त मध्यम काल होता है। इससे सुरेश्वरके कथनानुसार-माधमें गुणवान् एवं धन- अतीत समयको अधम काल कहते हैं। शाली, फाला नमें बुद्धिमान् तथा मेधावी, चैत्रमें वेद- पैठिनसीने लिखा है- वित्, वैशाखमें सौभागाशाली एवं विचक्षण, ज्य ठमें "हादशषोडशविंशतिचे दतौता अवरुद्धकाला भवन्ति ।" श्रेष्ठ तथा विज्ञ, और आषाढ़ मासमें उपनयन करनेसे मनुका वचन है-"आषोडशाब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते। द्विजातिका बालक ख्यातनामा एवं महापण्डित होता भावाविंशात् चववन्धोराचतुर्विशतेविंशः ॥ है। यह नियम ब्राह्मण और क्षत्रियके लिये रखा अत ऊर्ध्व वयोऽप्येते यथाकालमस स्कताः । है। बेश्यके पक्षमें शरत्काल ही प्रशस्त है। सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविहिताः।" (मनु रा३८०) लल्लाचार्य जन्मके लग्न, नक्षत्र, मास और राशिमें ब्राह्मणका गर्भसे सोलह, क्षत्रियका बौस और होनेवाले उपनयनको ही प्रशस्त समझते हैं। किन्तु वैश्यका चौबीस वर्ष तक उपनयन काल उत्तीर्ण नहीं गर्गमुनिने इस विषयमें कुछ विशेष कहा है- होता। उक्त काल पर्यन्त संस्कृत न बननेसे ब्राह्मण, “विवाहे मेखलाबन्ध जन्ममास' विवर्जयेत् । क्षत्रिय और वैश्यका बालक उपनयनसे भ्रष्ट हो साधु विशेषावन्मपक्षन्तु वशिष्ठाद्यैरुदाहृतम् ॥” समाजमें निन्दनीय समझा और व्रात्य कहा जाता है। विवाह और जनेऊमें जन्मका मास, विशेषतः
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