ऊरुपर्वा-उजव्य जरुपर्वा (स.पु.) जर्वाः पर्वेव, ५-तत् । जानु,घुटना। चिकित्सा-सर्षप और दीमकको मट्टी मधुके साथ जरुफलक (सं० ली.) जर्वीः फलकमिव, ६-तत्। पौस प्रलेप लगाना चाहिये। त्रिफला, चव्य, सोंठ नितम्बदेश, सुरीन्, पुट्ठा।। एवं पिपरामूल अथवा आंवला, हर, बहेड़ा, सोंठ, जरुभित्र (सं० त्रि०) अरुमें छिद्र रखनेवाला, जिसके | पीपल और मिर्च बराबर मधुके साथ चाटनेसे फटौ रान रहे। जरुस्तम्भ रोग दबता है। इस रोगपर 'अष्टकटरतैल' सररी (सं० अव्य.) जर-उरोक । ऊररी देखी। विशेष उपकारी है। उसको इसप्रकार तैयार करते जरसम्भव (सं० पु.) जरोः सम्भव उत्पत्तियस्य, हैं-मूछित सर्षपतैल ४ सेर, तक्र पौने ३ सेर, दधि बहुव्री। १ वैश्य, बनिया। (त्रि.) २ अरुसे 8 सेर, पिपरामूल २ पल और सौंठ २ पल एक साथ उत्पन्न होनेवाला, जो रान्से निकलता हो। पका तेल अवशेष रहते छान लेते हैं। यह अष्टकटर. जरुस्तम्भ (सं० पु.) जर स्तभाति, जरु-स्तन्भ, | तैल जरुस्तम्भको जड़से उखाड़ डालता है। अण् । जरुरोगविशेष, रान्को एक बीमारी। वैद्यकके जरुस्तम्भा (सं० स्त्री०) जरोरिव स्तम्भावतियस्याः। मतमें शौतल, उष्ण, द्रव, शुष्क, गुरु तथा स्निग्धकर | कदलीवृक्ष, केलेका पेड़। . वस्तु अतिरिक्त बरतने, अधिक परिश्रम करने, विशेष जरुद्भव (सं० त्रि०) जरुसे उत्पन्न, जो रान्से चलने फिरने, दिनको सो रहने और रातको जगने | निकला हो। प्रभृति कारणोसे सञ्चित वात, श्लेष्मा, मेद एवं पित्त कर्ज (धातु) चुरा• पर० अक० सेट् । १ जीवित भड़क उठता है। उस समय अस्थि नेमपूर्ण रहनेसे | होना, जिन्दगी पाना, जी उठना। २ बलिष्ठ होना, दोनो ऊरु स्तब्ध, शीतल, अचेतन, स्थानान्तर गमन वा ताकत हासिल करना। “यो । वान्नमत्ति स प्राणिति तमूर्ज- पदस्थापनके लिये अशक्त और अतिशय व्यथित हो जाते | यति ।" (शतपथब्रा० ७५।१।१८) (स्त्री० ) अज-क्किए । हैं। उसीसे मोह, अङ्गमर्द, आर्द्रवस्त्रके अवलुण्ठन ३ बल, ताकत। ४ अमृतरस नामक अन्नका सार- जैसे अनुभव, तन्द्रा, वमन, अरुचि और ज्वरका वेग भूत रस। (लो) ५ अन्न। बढ़ता है। प्रतिनिद्रा, अतिमुग्धता, अलसता, ज्वर, “तमः समूहाततिमप्यशेषादूर्जा जयन्त प्रथितप्रकाशान् ।" (भदि) लोमहर्ष, अरुचि, वमन और जङ्घा एवं ऊरुद्दयको जर्ज (स• पु० ) अर्जयति उत्साहयति शत्रन्, ऊर्ज- अवसवता इस रोगका पूर्वरूप है। जिसके जरुस्तम्भमें णिच्-अच्। १ कार्तिक मास, कातिकका महीना। दाह उठता, वेदना एवं सूचिवेधवत् पीडाका वेग | २ उत्साह, हौसला। ३ बल, ज़ोर। ४ द्वितीय बढ़ता और सब शरीर कंपता, उसका मृत्यु श्रा मन्वन्तरके सप्तर्षियों में एक ऋषि । ५ निखास, दम। पहुंचता है। उता उपद्रवशून्य और स्वल्पदिनोत्पन्न जीवन, जिन्दगी। ७ वीर्य। जरूस्तम्भको चिकित्सा करना चाहिये। कोई कोई “पूजितं ह्यशनं नित्य बलमूर्जञ्च यच्छति।" (मनु.२०५५) इसे आध्यवात भी कहते हैं। (माधवनिदान) (क्लो०) उज्य ते अनेन, जर्ज घञ् । ८ जल, आब । जरुस्तम्भमें स्नेहक्रिया, रक्तस्राव, वमन, विरेचन “नमः ऊर्ज इषे वय्या: पतये यज्ञरेतसे । और वस्तिकर्म सम्प ण निषिद्ध हैं। इस रोगमें वही प्तिदाय च जोवानों नमः सर्वरसात्मने ॥” (भागवत ४।२४।३८) चिकित्सा चलाये, जो श्लेष्माको हटाये और वायु न ८ काव्यालङ्कार विशेष । भड़काये। पहले रूक्ष क्रियासे कफको शान्त कर जज यत् (सं० वि०) १ बली, ताकतवर । २ बल- देते, पोछे वायुके प्रशमका काय हाथमें लेते हैं। दायक, ताकत देनेवाला। व्यायाम, उच्च स्थानको सम्फ प्रदान, स्रोतके प्रतिकूल अजयोमि (स.पु.) ऋषिविशेष। (भारत, अनु० ४०) सन्तरण प्रकृति कार्य बन सकनेसे कफचयके लिये जज वाह (सं.पु.) शुचिके एक पुत्र। उपकारी हैं। ऊर्जव्य (सं० पु.) ऋग्वेदोक्ल एक राजा । (अक् ५५२०)
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४१५
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