पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४२०

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जर्व पान-ऊव रेखा अर्ध्वपात्र ( स० लो०) अर्व नेतव्यं पात्रम्, मध्य- उभय बाहु ऊर्ध्वदिक उठाये रहते, उन्हें जवं बाहु पदलोपो समा। उखल प्रभृति यन्नपात्र । कहते हैं। भिक्षाके द्वारा जीविकानिर्वाह करते हैं। जर्व पाद (स'• पु०) अर्ध्वाः पादा यस्य, बहुव्री०। कोई दिगम्बर वेश रखता और कोई केवलमात्र गैरिक १ शरभ नामक मृगविशेष। शरभ देखो। (त्रि.) वस्त्र पहनता है। ५ वशिष्ठ के एक पुत्र । (विश्वपु० १।१०।१३) २ अर्ध्व देशमें पाद रखनेवाला, जिसके ऊपरी हिस्म में (त्रि०) ६ बाहु उत्तोलन किये हुपा, जो हाथ पैर रहे। उठाये हो। ऊर्ध्वपुण्ड़ (सं० पु०) ऊर्ध्व उन्नत: पुण्ड इक्षुष्टिरिव। ऊर्ध्व बुध्न (वै० त्रि०) अध्वं -बन्धन, अवबोधन । चन्दन आदिसे ललाटपर लगाया हुआ लम्बा तिलक । जयबहती (वै० स्त्री०) छन्दोविशेष । ब्रह्माण्डपुराणमें लिखा है-ब्राह्मणको ऊर्ध्वपुण्ड, अर्ध्व भाक् (सं० वि०) १ अर्ध्व भाग लेनेवाला, जो क्षत्रियको त्रिपुण्ड, वैश्यको अर्धचन्द्राकार एवं ऊपरी हिस्सा पाता हो। (पु० ) २ बड़वानल । शूद्रको वतलाकार तिलक लगाना और जल, मृत्तिका, जवभाग (सं• पु०) अर्थ उपरिस्थो भागः, एकदेश: भस्म तथा चन्दनसे अर्ध्वपुण्ड बनाना चाहिये। देवी- कर्मधा। उपरिभाग, ऊपरी हिस्सा। भागवतमें नारायणने कहा है कि वैदिक अर्थात् वेदनिष्ठ ऊर्ध्वम् (स० अव्य० ) उत् हे डमु, उरादेशः। उपरि, ब्राह्मणको ऊर्ध्वपुण्ड, त्रिशूल, वर्तुल, चतुष्कोण वा ऊपर। “ऊर्ध्व प्राण्णा ह्य तक्रामन्ति यूनःस्थविर आयति।” ( मनु ) अर्धचन्द्राकार प्रति कोई तिलक लगाना मना है। ऊर्ध्व मनु (स० पु०) पुराणोक्त जनपदविशेष । .फर ब्रह्माण्डपुराणके मतसे अशुचि, अनाचारी एवं (ब्रह्माणपु० ४७१४८, मत्स्वपु०.१२०४८) पापचिन्ताकारी व्यक्ति भी ऊर्ध्वपुण्ड, लगानेसे शुद्धता अर्ध्वमन्यो (सं० पु०) ऊवं उत्तराश्रमं मथाति, पाता और चण्डालतुल्य अनाचारी ब्राह्मण अर्ध्व- मन्थ-णिनि। नैष्ठिक ब्रह्मचारी, स्त्रीप्रसङ्गसे बिलकुल पुण्डावित अवस्थामें मरनेसे स्वर्ग चला जाता है। अलग रहनेवाला। भनेक पुराणोंको देखते जप, होम, दान, वेदाध्ययन ऊर्ध्वमान ( स० क्लो०) अवमारोप्य मीयते अनेन, और पिटकार्य में ऊर्ध्वपुण्ड धारण निषिद्ध है। किन्तु ऊर्ध्व-मा-त्यट। १ प्रस्तर वा लौहनिर्मित तौलनेका कुलाचारमें ऐसा नहीं होता। इसलिये व्यासोक्त बांट। २ ऊपरी परिमाण । वचनके अवलम्ब नसे निश्चित होता है कि-थाहादिके अर्ध्वमायु (सं.वि.) उच्चशब्दकारी, जो ऊंची समय गन्ध वस्तुहारा अर्ध्वपुण्ड लगाना मना है, आवाज़ देता हो। अपरापर वस्तुसे लगाने में कोई वाधा नहीं। अलमारुत (स' लो०) देहस्थ वायुका ऊपरौ दबाव । जर्व पुण्ड क, अर्ध्व पुरु देखो। | अर्ध्वमुख (स'• वि०) ऊर्ध्व मुखं यस्य, बहुव्री । ऊर्ध्वपुर (सं. अव्य०) किनारे तक भरकर । १ऊपरको मुख रखनेवाला। . अर्ध्वपृश्नि (सं० पु.) जोः पृश्नयो विन्दवो यस्य, ___ "प्रबोधयत्य वं मुखैर्मयूखैः।” (कुमार) बहुव्री। पशु विशेष, एक चौपाया। (पु०) २ पग्नि । (को०) ३ मुखका अर्ध्व भाग, ऊर्ध्व वी (सं० वि० ) ऊध्र्व प्रागग्रं बहिर्येषाम्, मुहका ऊपरी हिस्सा । ४ उन्नतमुख, ऊंचा मुंह। बहुव्री। पिलोक । अर्ध्वमुखी (सं० पु०) संन्यासियोंका एक सम्प्रदाय । जज़बाल (सं० त्रि०) खड़े बालोंवाला। यह अपना मुख जपरको हो रखते हैं। सर्वबाहु (सं० पु० ) ऊर्ध्व अर्व मतशासौ बाहु-ऊर्ध्वमूल (सं० ली.) जगत्, दुनिया। चेति कर्मधा। १ उत्तोलित हस्त, उठा हुपा हाथ। अर्ध्वमौहर्तिक (सं० वि०) कुछ कालके बाद २ पञ्चम मन्वन्तरके सात ऋषियोंमें एक ऋषि। होनेवाला, जो थोड़ी देरके बाद पा पड़ता हो। ४ संन्यासी सम्प्रदाय विशेष। जो साधु एक वा | जय रेखा (सं० स्त्री०) चरणचिविशेष । यह ४८