पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/४२२

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४२१ जर्मिका-अपना जमिका (स' स्त्री. ) जमि स्वाथै कन्-टाए, ऊर्मि- । जयंत (स• क्लो०) जाः पृविष्या पङ्गमिव । रिव कायति, जर्मि-क-टाए। १ अङ्गुरीयक, अंगूठो। गोमयछत्रिका । इमका संस्कृत ' पर्याय-दिलोर, २ भ्रमर गुजन, भौंरकी गूंजन । शिलोन्धक, वशारोह और गोम्नास है। (हारावली) जर्मिन (स• त्रि०) अमिरस्त्यस्य, ऊ म इनि । ऊर्षा (स. स्त्रो०) देवताड़क ढण। जम युक्त, लहरदार, लहरी। ऊन-युक्त प्रदेशको एक नदी। यह शाहजहांपुर जिले में ऊर्मिमत्ता (स'. स्त्री०) १ भरता, टापन। अक्षा० २८.२१° उ• तथा ट्राधि० ८०.२७ पू.से २ वक्रता, टेढ़ापन। निकलती और दक्षिण में पूर्व ७ मोल बह कर अक्षा. अमिमान् ( स० वि० ) जमिरस्ता स्त, जम्मितुप्। २८.२२ उ० एव ट्राधि०८०.२८ पू०पर खेरी जिले में १ तरङ्गयुक्त, लहरदार । २ वक्र, मेहराबदार। जा पहुंचती है। फिर सीतापुर जिलेमें जल पक्षा. अम्मिाली (संपु०) जीणां माला विद्यते यस्य, २७.४२ उ० तथा ट्राधि०८१.१३ पू०पर चौकासे ऊर्मि माला-दुनि। समुद्र, बहर-पाजम। मिलती है। पूरी लम्बाई ५५ कोस है। इसमें बाढ़ "चन्द्र प्रबुद्धोमिग्विोर्निमाली।" (रघु ५६१) प्रानका बड़ा डर रहता है। कहीं कहौं जन बिल- जर्मिना (स. स्त्री०) लक्षमयको पत्नी। यह कुल सूख जाती है। अलीगंज एवं गाले और लखोम- जनककी औरस कन्या थौं। पुर तथा सिंघोके बीच इसपर पुल बंधा है। यह नाव जय (स त्रि.) जौं भवः, अमि-यत् । १ तर चलाने या खेतमें पानी पहुंचानेके काम नहीं पाती। गोत्पत्र, लहरसे निकला हुआ। (पु०)२ रुद्र विशेष। अलंग (हिं. स्त्रो०) एक चाय। जा । वै० स्त्री०) रात्रि, रात । जलजलन (हिं० वि०) १ जटपटांग, वाहियात । "तिरक्तमो ददर्श जासु।" (ऋक् ८४८६।) २ मूर्ख, गड़बड़िया। ३ प्रमभ्य, गंवार । . 'काम राविषु ।' (सायथ) जलर (हिं. स्त्री०) काश्मोरस्थ हद विशेष, काश्मो- जर्व (सं.पु.) १जलपात्र, हौज।२ मेघ, बादल। रको एक झोल। यह खब लम्बो चोड़ी है। ३ पावत स्थान, घिरी जगह। ४ कारागृह, क.द-जलपी (स.पु.)१ जलजन्तु विशेष। एक पानीका .. खाना। ५ श्रीव के पिता। बड़वानल । जानवर । २. मत्स्य विशेष, एक मछलो। उरू पो देखो। अर्वरा, उर्वरा देखो। छलक (स. पु०) उलक, उल्ल । ऊवशर (स० पु०) भरतवंशीय महावीयेक पुत्र। जवट, उवट देखो। सर्व शो, उमा देखो। अवध्य (सं.क्लो०) पशुके उदरका नपचारमा वृण । सर्वष्ठीव (सं.ली.) अरुच अष्ठीवन्तौ च, समाहार-जष (धातु) भादि. पर० स० सेट् । “अब रोगे। इन्द। अरु एवं जानु, रान और घुटना। (कविकस्पटुम ) पौड़ा देना, तकलीफ पहुंचाना। जवमी (स० स्ही) अरौ उषिता, पृषोदरादित्वात् जष (सं० पु.) अष-क। १ क्षारमृत्तिका, स्वारी साधुः। शो देखो। महो। २ कर्णरच, कानका छेद। ३ मलय पर्वत, जस्थि (स• को०) अरोरस्थि, ६-तत्। जर- चन्दनाट्रि। (क्लो०) ४ प्रत्यूषकाल, तड़का। ५ शुक्र,वीर्य। देशका हाड़, गनको हो। ऊषक (स. क्लो०) 5ष स्वार्थ कन् । प्रत्यूष समय, की (स. स्त्री०) अरुदेशका मध्यस्थ। सवेरा। "वरमध्ये का नाम तव शोणिवचयात् सक्थियोषण" अषण (सं० क्लो.) जप-त्य.ट । १ मरिच, मिर्च । (सुश्त भारौर) २ शुण्ठो, सोंठ। ३ पिपरामूल। ४ चौत। स्वयं (सं० पु०) व भवः, ऊर्व-यत्। बड़वानला- जषणा (सं० स्त्री.) अषण-टाप् । १ पिप्पली, धिष्ठात्री देवता, इन्द्र। . | पीपल। २ चविक। Vol III. 106