एकान्तस्थित-एकार्थोंभाव ४३७ एकान्तं सुषमा, २-तत् । बोद्द मतानुयायो : स्वयं मुरारिने लगाया था। यहां भगवान् भुवनेश्वरको कालविशेष। अवसर्पिणीके प्रथम और उत्सर्पिणी लिङ्गमूर्ति प्रतिष्ठित है। भुवने वर देखी। कालचक्रके षष्ठ धुरको एकान्तसुषमा कहते हैं। एकायन ( स० त्रि०) एकमयनमाश्रयो यस्य, बहुव्री.। एकान्तस्थित (सं• त्रि०) पृथक् पड़ा हुघा, जो १ एकाग्र, एकही की ओर झुका हुआ। २ एक होके अकेले ठहरा हो। गमन करने योग्य, जिसपे दूसरा चल न सके। (लो.) एकान्तस्वरूप (सं० वि०) एकान्तस्थित, अलग एकमयनं स्थानम्, कर्मधा । ३ एकस्थान, निराली रहनेवाला। जगह। ४ मिलनस्थान, इकट्ठा होने का मुकाम । एकान्तिक (स, त्रि०)अन्तिम, फलस्वरूप, अाखिरी, ५ विचारयोग, खयालोंका मेल। ६ एकपरायणता, नतीजेवाला। उसीका सहारा। ७ वेदकी एक शाखा। एकान्तित्व (सलो .) एकाचय, निरालापन । एकायनगत (से.वि.) एकस्मियने गतं ज्ञानमस्य, एकान्ती ( स० त्रि.) एकान्तमस्यास्ति, एकान्त- बहुव्री। १ एकाग्र, एक ही बातपर झुका हुआ। इनि। १ अतिशययुक्त, बहुत बड़ा। ( पु० ) २ एकस्थानमत, उसो जमह पहुंचा हुआ। २ विष्णुभक्त विशेष। यह एकान्तमें बैठ विष्णुको एकायु (वै० त्रि.) १ सम्पूर्ण जीवोंको एकत्र करने- भजते हैं। वाला, जो सब जानवरोंको इकट्ठा करता हो।२ प्रथम एकान (सं० वि०) एक एककालपर्क अन्नं यत्र, जीवधारी, पहले जिन्दा होनेवाला। ३ प्रत्युत्तम बहुव्री। १ एकवार भोजन करनेवाला, जो दूसरे भोजन प्रदान करनेवाला, जो निहायत उमदा खाना मरतबा खाता न हो। (क्लो०) २ एकमात्र भोजन, देता हो। वही एक खाना। (पु.)३ सहजभीजी, साथ-साथ एकार (सं० पु.) स्वरवर्णका एकादश अक्षर। ए देखो। खानेवाला। एकार्णव (सं० पु.) जलप्लावनविशेष, एक बूड़ा। एकात्रभुक् (स.पु.) सहजभोजी, जो वही चीज इसमें घर-बाहर सब जगह पानी भर जाता है। खाता हो। . एकार्थ (सं० पु०) एकः अद्वितीयः अर्थः, कर्मधा । एकानविंशति (स• त्रि.) एकेन नविंशतिः चाटुक् | १ एकप्रयोजन, वही मतलब। २ एक अविधेय शब्द, अनुनासिकच। एकोनविंशति, उन्नीस, १८। । वही लफूज़ । ३ एकपदार्थ, वही चीज़। (वि.) एकाबादी (स.वि:) केवल एक व्यक्तिका दिया। एकोों यस्य, बहुव्रो०। ४ एकप्रयोजनयुक्त, वहौ. अन्न वानवाला, जो एकही पादमौके लाये खाने मतलब रखनेवाला। ५ एक अभिधेय, वही माने. पर बसर करता हो। रखनेवाला। एकादा (स• स्त्री.) एकवर्षको गाभी, एक सालको | एकार्थक, एकार्थ देखो। बछिया। एकार्थता (सं० स्त्री० ) एकार्थस्य भावः, एकार्थ-तब्- एकाम्बरनाथ सोमयाजी-एक संस्क त ग्रन्थकार । टाए। अथ वा उद्दश्यको अभिन्नता, माने या माम्बवती-परिणय, वीरभद्रविजय और सत्यपरिणय मतलबका मेल। नामक काव्य इन्होंने लिखा है। एकार्थसमुपेत (सं० वि०) एकार्थेन पभिन्नार्थेन एकान (सं.ली.) एक पवित्र तीर्थस्थान। आम्रका समुपेतं युक्तम्, ३-तत्। १ एक अर्थविशिष्ट, वही एकमात्र वृक्ष रहनेसे यह नाम पड़ा है। वह वृक्ष | माने रखनेवाला। २ एक उद्देश्ययुक्ता, वही मतलब अतिशय उच्च, सुन्दर शाखाविशिष्ट, और नव नव रखनेवाला। किशन्नय तथा पन्नवसे भरा रहा । उसका फल-धर्म, एकार्थीभाव ( स० पु.) एक अर्थका धारण, वही अर्थ, काम और मोच था। उक्त गोपनीय वृचको | माने रखनको बात। Vol. III. . 130
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