पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/५३६

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प्रोम ५३५ अथवा प्रणव शब्दका उल्लेख है । इससे समझ पड़ता- प्रभृति गाये जाते हैं। इसलिये अोकार हो उग्रोथ वैदकी संहिता अर्थात् प्राचीनतम भागके साथ साथ है। ओङ्कारको व्याख्या करना कर्तव्य है। (३१०१) ओम्का आविर्भाव हुआ है। उसो गणनातोत कालसे वाक्य ही ऋक, प्राण हो माम और 'ॐ' अक्षर हो ऋषियोंने भोङ्कारतत्त्व प्रचार करनेको उद्योग लगाया। उद्गीथ है। वाक्य एवं प्राण ऋक तथा सामका कारण ऋगवेदक ऐतरेय ब्राह्मणमें लिखा है-“ोऽमित्य चः होनेमे ऋक और साम शब्द वाच्य मिथन है। (१.५) प्रतिगर एवं तथेसि गाथाया भोमिति वै दैवं तथेति मानुषम् ।” (११८) "तहा एतन्मिय नमामि ये तस्मिन्न दरै ममृजाते यदा ३ मिव नौ सकल वेदोंको प्रायः सकल हो उपनिषदों में मोम समागच्कृत आपयतो वै तावन्योन्यस्य कामम्।" "मापनाऽवे कामानां पर कुछ न कुछ लिखा और उसके पाठसे कई प्रकार भवति य एतदेव विद्यानचरमुद्गीथमु गम्त " (छान्दोग्य उप० ३१६-७) ओम्का गूढार्थं प्रतिपादित हुआ है। यथा- जैसे स्त्रीपुरुषके परस्पर मिलने से कामवृत्ति कृतार्थ १म-सेतु। अथर्ववेदको संहितामें ओम 'सेतु' हाती, वैसे हो जब वाक्यरूप स्त्री और प्राण- जैसा निर्दिष्ट है। (६।१०,८४) २य-मनं । ( शन्दोग्य), रूप पुरुषका मिथुन अर्थात् मिलन गंठता, तब श्य-काय। (छान्दोग्य ) ४थे-रथ । (नैवी उप० २०६०) उनको परस्पर काम मिलता है। (३१) जो ५म-उड़ग । (श्वेताश्वतर रा८) ६8-उदोथ। (छान्दोग्य ११) विद्वान् व्यक्ति इस मतको देख उद्ग्रोथ ओङ्कारको ७म-खास । (छान्दोग्य १२ ) ८म-अग्नि म-तेजः।। उपासना करता, वह जब जो चाहता, वही फल पा "तेजो प्रथममोडारात्मकमासीत्। तत्तेजोऽनेनवोमित्येव तयुध्नति ।" | जाता है। (३१७) ( मैवी उप० ) १०-ज्योतिः। “दीपातोम् ज्योति: प्रकाशना- तेत्तिरीय उपनिषद में लिखा है- ज्योतिः। प्रणवाख्यप्रणेतारमरूपो बोतनिद्रो विजरो विमृत्यु विंशोको "घोमिति ब्रह्म। भोमितोद सर्वम्। ओमित्य तदनुक्क तिह स्म वा भवतीत्ये व ह्याह।" (मैबौउप० ६।२५) ११-वाक्य । १२-शब्द । भयो बावयेव्या श्रावयन्ति। मिति सामानि गायन्ति ओं शामिति (छान्दोग्य २२२३) १३-रस । (तैत्तिरीय उप० २७) १४-जल । शस्त्राधि शंसन्ति । अमिन्यवयं प्रतिगरं प्रतिपाति। ओमिति ब्रह्मा "आपो ज्योतिरसोऽमृतं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् " (मैवी उप०६।२५) प्रसौति । भोमित्यग्निहोत्रमनुजानाति। ओमिति ब्राह्मणः प्रवचानाह। १५-मिथन। (छान्दोग्य १०६) १६-नेय। ( योगशास्त्र) ब्रह्मोपान वानोति ब्रह्म वो प्राप्नोति।" (८१) १७-यूप। “ओडारो यूपः।” (प्राणाग्निहोव उप० ) १८-सर्व। श्रोङ्कार हो ब्रह्म है। इस संसारने सकल हो "ओमिति ब्रह्म। ओमितीदं सम्।” (त्तिरीय उप०१८) ओङ्कार है। सकल कार्योंके आदिमें प्रोङ्कार प्रयोग ऊपरी अर्थो से स्पष्ट समझ पड़ता, कि वही करना चाहिये। कोई वैदिक विषय सुनाने में प्रथम विश्वात्मा है। हो पोद्धार उच्चारण करना पड़ेगा। प्रोङ्कार प्रयोग . १९-आरम्भ। २०-खोकारवाक्य । २१-अनु पूर्वक सामगान किया जाता है। शास्त्र पढ़ने में मति। २२-अपावति। २३-अखोकार। प्रथम 'ॐ शौं वाक्य बोलते हैं। अध्वयं को मन्त्र ब्रह्मको महिमा प्रकाश करने को 'पोम्' शब्द पढ़ते समय पहले ॐ उच्चारण कर लेना चाहिये। नाना अर्थों में व्यवहृत हुआ है। भिन्न भिन्न उप ब्रह्म कर्मारम्भसे पूर्व 'ॐ' शद बोलना पड़ता है। निषद में इस विषयका विस्तर प्रमाण मिलता है। ॐ शब्द उच्चारण कर अग्निहोत्र याग करते हैं। "पोमित्य तदचरमुवीथमुपासोत। पोद्धार उच्चारणपूर्वक वेदाध्ययन करनेसे वेदविद्या भोमिति झु झायति तस्योपव्याख्यानम् ।" (छान्दोग्य ।।१) और ब्रह्मविद्या दोनों मिलती हैं। • “भोमित्ये तदचरमुद्गीथः तद्दा एतन्मिथुन वागेवर्कप्राय: साम यहाक् "परचापरच ब्रह्म यदोहारस्तम्माहिहानेतेदेवायतने नेकवरमन् ति ।। च प्राथवर्क च साम च। (छान्दोग्य ३।११५) स यद्येकमावमभिध्यायौत स तेनैव संवेदितस्त र्णमेव जगचामभिसम्पद्यते । तमचो मनुष्यलोकमुपनयन्ते स तव तपसा ब्रह्मचर्यच अइया सम्पन्नो महि- पक्षरस्वरूप उगोथ 'ॐ'को उपासना करना मान मनुभवति ।श पथ यदि हिमावण मनसि सम्पद्यते सोऽन्तरिच' यजुर्भ चाहिये। क्योंकि 'ॐ अक्षरसे हो प्रारम्भ कर साम रुन्नीयते। सोम लोकं स सोमचोके विभूतिमनुभूध पुनरावर्तते । ४।