कच्छप-कच्छपौ मत्स्य खा डालता है। अति अल्पसंख्यक मात्र शिशु : विशिष्ट रहता, वह कूप वापो प्रभृति अथवा जल- जोते जागते हैं। जो बचते, वह समुद्र के गर्भ में बढ़ पूर्ण कलसमें मङ्गलार्थ रखने पर राजाका कल्याण कालक्रमसे वृहदाकार बनते हैं। उस समय एक- करता है। एक समुद्र कच्छप वज़नमें २० मनतक तुलता है। इस वैद्यकामतमें कच्छपका मांस वायुनाशक, शुक्र- जातिका कच्छप मानवजातिके अनक उपकार करता वध क, चक्षुको हितकर, वलवर्धक, मेधा तथा स्मति है। नाना स्थानों के लोग इसका मांस खाते हैं। कारक, स्रोतःसंशोधक और शोध-दोषनाशक है। विशेषत: जहां कच्छपका बड़ा कोष पाते, वहां लोग इसका चर्म पित्तनाशक, पद कफहारक और डिम्ब उससे नौका, कुटीरके आच्छादन, गवादिको सानी शुक्रवध क एवं मधुर है। देनेके पात्र और व्यवहारयोग्य कई प्रकारके अपर २ अवतारविशेष। कूर्म देखो। ३ नन्दोवृक्ष, तुनका वस्त बनाते हैं। पड़। ४ कुवेरका एक निधि। ५ मल्लोंके युद्धका यह जाति प्रधानतः तीन श्रेणियों में विभक्त है। एक कौशल, कुस्तीका कोई पेच । ६ विश्वामित्रके फिर बा१. भेद पड़ते हैं। इस कच्छपके कोषसे एक पुत्र । हरिवंशमें विश्वामित्रके पुत्रों का नाम लिखा उत्कृष्ट कड़े बनते हैं। | है-देवराज, देवश्रवा, कृति, हिरण्याक्ष, रेणुमान्, भगवान् मनुके मतसे कच्छप भक्ष्य पञ्चनखोमें साङ्कति. गालव, मुहल, विश्रुत, मधुच्छन्दा, प्रभृति, गिना जाता है- देवल, अष्टक, कच्छप और पूरित। सर्पविशेष। "श्वाविध शक्यक गोधा खड़ गर्मशशांस्तथा ८ श्लेषणजन्य तालुरोगविशेष, साल की एक बीमारी। भच्यान् पञ्चनखेष्वाहुराष्ट्रीय बतोदतः ॥” (मनु ५।१८). ८ मदिरायन्त्र, शराब उतारनेका एक पाला। वराहमिहिरने कच्छपजातिका लक्षण इस प्रकार १. देशविशेष, एक मुस्क। ११ एक प्रकारका दोहा। लगाया है- इसमें ८ गुरु पौर ३२ लघु लगते हैं। "स्फटिकरजतवणों नीलराजोवचिव: कलमसदृशमत्तिशास्वंशश्व कूर्मः।। कच्छषयन्त्र (स. क्लो) औषधके पाकका एक यन्त्र, ...अश्यसमवपुर्वा सर्व पाकारचिव: सकलनुपमहत्व मन्दिरस्थः करोति ॥ दवा बनानेका एक औज़ार । अचनमाश्यामवपुर्वा विन्दुर्विचिवोऽव्यङ्गशरीरः । कच्छपि (सं० पु.) १ क्षुद्ररोग, छोटी बीमारी। सर्पशिरा वा स्थ लगलो यः सोऽपि नृपाणां राष्ट्रविद्ध्ये ॥ २ तालुरोग, तालको बीमारो। यैर्यवि स्खल कण्ठस्त्रिकायो गूढच्छिद्रवारव शश्व शस्तः । कच्छपिका (सं. स्त्री०) कच्छप स्वार्थे कन् अत इत्वं क्रौड़ावापा तोयपूर्ण मनौ वा कार्य: कूमों मङ्गलार्थ नरेन्द्रः।" टाप च। १ क्षुद्र पिडकाविशेष, छोटो छोटो फुन- (तसहिता ६४ प.) सियों की बीमारी। यह वात और कफसे प्रमेह रोगमें ' जिस कच्छपका वर्ण स्फटिक एवं रजत-जैसा उत्पन्न होती है। सुश्रुतके मतसे कच्छपिका दाहयुक्त तथा ऊपर नौलपद्मकी भांति चित्रित, पाकार एवं कच्छपावति रहती और कफ तथा वायुसे उपजती कलससदृश, पृष्ठ मनोहर अथवा देह अरुणवर्ण है। भावप्रकाशके लेखानुसार इस रोगमें प्रथमतः पौर सरसों-जैसा चित्रित रहता, वह घरमें रख- खेदक्रिया चला हरिद्रा, कुष्ठ, शर्करा, हरिताल और नेसे राजाका महत्त्व प्रकाश करता है। जिस दारुहरिद्रा पीसकर प्रलेप देना चाहिये। पकनेपर कच्छपका शरीर पचन एवं भृङ्गकी भांति श्याम- व्रणको भांति चिकित्सा करते हैं। २ विषमुष्टि । वर्ण, सर्वाङ्ग विन्दु-विन्दु चित्रविचित्र अथवा मस्तक ३ महानिम्ब। ४ कृष्णानिगुण्डी। सर्प-जैसा या गला स्थल दिखाता, वह राजाका | कच्छपी (सं• स्त्रो०) कच्च राष्ट्र बढ़ाता है। जो कच्छ योपधात् । पाभरा। १ कच्छपस्त्री, कछुई। पौड़का- कण्ठ, विकोष, गूढछिद्र और मनोहर पृष्ठदण्ड-। विशेष, किसी किमको फुनसो। कञ्चपिका देखो।
पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६१९
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